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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे | ॥४६३॥ 00 थे, वहां पहुंचा वहां पहुंचते ही सर्वप्रथम उसने दोनों हाथ जोडकर और अंजलिरूप में परिणत उन्हें मस्तक के दायें-बायें घुमाकर पश्चात् उन्हें मस्तक पर लगाकर अर्थात् नमस्कार कर 'जय हो महाराज की, विजय हो महाराज की' - इस प्रकार जय विजय शब्दों द्वारा राजा को बधाया, बधाने के बाद फिर वह इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय ! जिनके सदा आप दर्शनों की इच्छा किया करते है जिनके आप देवानुप्रिय दर्शन करने की सदा स्पृहा रखा करते हैं - कब मुझे भगवान् के दर्शन होंगे इस प्रकार की उत्कंठा निरंतर किया करते है देवानुप्रिय जिनके दर्शनों की याचना किया करते "हैं, अर्थात् - हे भगवान् ! आप के दर्शन से ही मेरा जन्म सफल होगा, इसलिये आप कृपा करके अपने चरण कमल का दर्शन दीजिये, इस प्रकार एकान्त में आप बार २ प्रार्थना किया करते हैं, अथवा हमारे जैसे लोगों से आप प्रार्थना करते हैं कि मुझे भगवान् का दर्शन कराओ । हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों की चित्त में सदा सिंहसेन राज्ञः सपरिवारप्रभुसमीपा गमनम् ॥४६३॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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