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________________ सशब्दार्थे कल्पसूत्रे अभिलाषा धारण किये रहते हैं कि कब मैं प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर उनकी सिंहसेन राज्ञः उपासना करूंगा, हे देवानुप्रिय ! जिनका नाम तथा गोत्र-वंश सुन कर भी आपका सपरिवार॥४६॥ हृदय हृष्ट तुष्ट हुआ करता है, वे श्रमण भगवान्-परमैश्वर्यसम्पन्न. गुणनिष्पन्न नाम- || प्रभुसमीपा गमनम् वाले महावीर पूर्वानुपूर्वीरूप से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते हुए आज पावापुरी नगरी के समीप महासेन उद्यान में पधारे हुए हैं, इसलिये हे | देवानुप्रिय ! मैं आपको यह प्रिय आत्म हितकारी समाचार आप के हित के लिये सविनय निवेदन करता हूं। आपका कल्याण हो । उसके बाद सिंहसेन राजा हृष्ट तुष्ट हो उस संदेशवाहक के लिये साढे बारह लाख चांदी की मुद्राओं का प्रीतिदान पारितोषिक प्रदान किया, प्रीतिदान देकर उन्होंने उसका सत्कार किया, मधुर वचनों IMI से सन्मान किया। इस प्रकार सत्कार एवं सन्मान करके उन्होंने उसे विदा किया। इसके अनन्तर सिंहसेन राजा ने अपने बलव्यापृत-सेनापति को बुलाया, बुलाकर इस ॥४६४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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