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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥४४९॥ सर्वदर्शी हो गये । देवों मनुष्यों असुरों सहित लोक की [आगई गई ठिई चवणं उववायं भुक्तं पीयं कडं पडिसेवियं ] आगति, गति, च्यवन, तथा उपपात को तथा खाये, पीये किये, सेवन किये को [आवीकम्मं, रहो कम्मं, लवियं, कहियं माणसिति सव्वे पजाए जाणइ पासइ] प्रकट अप्रकट कर्म को, पारस्परिक भाषण को कथित मानसिक आदि भावों को इस प्रकार सभी पर्यायों को जानने और देखने लगे [सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे विहरइ] समस्त लोक में सब जीवों के सभी भावों को जानते हुए तथा देखते हुए विचरने लगे [तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स केवलवरणाणदंसणुप्पत्तिसमए ] तब श्रमण भगवान् Hara haज्ञान और केवलदर्शन की उत्पत्ति के समय में [सव्वेहिं भवणव वाणमंतरजोइसिय विमाणवासीहि चोसहि इंदा देवेहिय देवीहिय] सब भवनपति, वानव्यंतर, जोतिष्क तथा विमानवासी चौसठ इन्द्र देवों और देवियों के [उवयंतेहिय उप्प भगवतोकेवलज्ञान प्राप्तिः ॥४४९॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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