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चतुष्पष्टिदेवेन्द्राणां प्रादुर्भधनम्
कल्पमत्रे मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए चोस? शब्दार्थे 1४४४॥
देविंदा पाउब्भवित्था, बत्तीसंभवणवइ जोइसिय विमाणवासिदेवाणं इंदा पणत्ता, तं जहा-चमरिंदे१, बलिंदे२, धरणिंदे३, भूयाणंदे४, वेणुदेविंदे, वेणुदालिंदेव, हरिंदे७, हरिस्सहेंदे८, अग्गीसिहेंदे९, अग्गिमाणविदे१०, पुन्निदे११, वसिद्वद १२, जलकंतिदे१३, जलप्पभिंदे१४, अमियगयेदे १५, अभियवाहनिंदे१६, लंबदे१७, पहंजणिंदे१८, घोसिंदे१९, महाघोसिंदे२०, चंदिदे२१, मूरिदे२२,
सकिंदे२३, ईसाणिंदे२४, सणंकुमारिदे२५, महिंदे२६, बंभिंदे२७, लंत्त। यिंदे२८, सुक्किंदे२९, सहरसारिंदे३०, पाणयिंदे३१, अच्चुयिंदे३२॥३॥ .
: भावार्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पास अनेक देवेन्द्र प्रकटित हुए-उसमें भवनपति, ज्योतिषी और विमानवासी देवों के बत्तीस
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