SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - शक्रन्द्रकत कल्पसूत्रे सभन्दार्थ तीर्थकर ॥३४॥ स्वय महोत्सवः धर्मरूप रथ के सारथि धर्म में चातुरंत चक्रवर्ती संसार समुद्र में द्वीप समान शरणागत को आधारभूत, अप्रतिहत केवलज्ञान व केवलदर्शन धारण करनेवाले, छद्मस्थपना रहित स्वयं रागद्वेष का जय करनेवाले अन्य से रागद्वेष का जय करानेवाले स्वयं संसार समुद्र से तीरनेवाले, अन्य को तिरानेवाले स्वयं तत्वज्ञान जाननेवाले अन्य को तत्वज्ञान बतलाने वाले स्वयं अष्ट कर्म से मुक्त होनेवाले और अन्य को मुक्त करानेवाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं उपद्रव रहित अचल रोग रहित अनंत अव्यय अव्याबाध और जहां से पुनरागमन होवे नहीं वैसी सिद्धिगति को प्राप्त करनेवाले और सातों भयों को जीतने वाले सिद्ध भगवान् को नमस्कार होवो । भगवान् तीर्थंकर धर्म के आदि करनेवाले यावत् मोक्ष प्राप्त करनेवालों को नमस्कार होवो। अहो भगवन् आप वहां रहे हुवे को भी मैं यहां रहा हुवा नमस्कार करता हूं यहां रहे हुवे आप मुझे देखते हो, यों वंदना नमस्कार कर अपने सिंहासन पर शकेन्द्र बैठते हैं ॥४॥ ॥३४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy