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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥४४१ ॥ होना । ३२ - सायारत - वर्णों, पदों और वाक्यों का पृथक्-पृथक् होना । ३३ - सत्तपरि- प्रभावशाली एवं ओजखी वचन होना । ३४ - अपरिखेइयत्त - ऊपदेश देने में थकावट न होना । ३५ - अव्वोछेइयत्त - जब तक प्रतिपाद्य विषय की भलीभांति सिद्धि न हो तब तक लगातार उसकी प्ररूपणा करते जाना, अधूरा न छोड़ना ॥२॥ भावार्थ - भगवान् की सत्य वाणी के ३५ गुण १ संस्कारवत्व-वाणी का संस्कार युक्त होना- व्याकरणादि की दृष्टि से निर्दोष होना । २ स्वर का उदात्त - ऊंचा होता ३ भाषा में ग्रामीणता न होना । ४ मेघ के शब्द के समानगंभीर ध्वनि होना । (५) प्रतिध्वनियुक्त ध्वनि होना ६ भाषा मे सरलता होना । ७ श्रोताओं के मन में बहुमान उत्पन्न करने वाली स्वर की विशेषता होना । ८ वाच्य अर्थ में महत्ता होना, थोडे से शब्दों मे बहुत अर्थ भरा हुआ होना ९ वचनों में पूर्वापर विरोध न आना । १० अपने इष्ट सिद्वान्त का निरूपण करना । अथवा वक्ता की शिष्टता सूचित करने । भगवतो ३५ वचनातिशेपाः ॥४४१॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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