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________________ ॥४४॥ तिशेपाः कल्पसूत्रे । का उदार होना, शब्द एवं अर्थ की विशिष्ट रचना होना । २३–पर निदासातमोक- भगवतोसशब्दार्थे in ३५वचनासिणविप्पजुत्तत्त-दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा से रहित वचन होना । २४उवगयसिलाघत्त-वचनों में पूर्वोक्त गुण होने से उसका प्रसंसनीय होना । २५-अवणी यत्त-काल, कारक, वचन, लिंग आदि का विपर्यासरूप भाषासंबंधी दोषों का न होना। ॥ २६-उप्पाइयाच्छन्नकोउहलत्त-श्रोताओं के मन में वक्ता के प्रति कुतूहल [उत्कंठा] बना रहना । २७-अदुयत्त-बहुत जल्दी न बोलना। २८-अनइविलंवियत्त-बीच बीच में रुककर-अटककर न बोलना, धाराप्रवाह वाणी का होना । २९-विब्भमविक्खेव रोसावेसाइ राहिच्च-वक्ता के मन में भ्रान्ति न होना, उसका चित्त अन्यत्र न होना, रोष तथा आवेश न होना अर्थात् अभ्रान्त भाव से उपयोग लगा कर शांति के साथ भाषा बोलना । ३०-विचित्तत्त-वाणी में विचित्रता होना । ३१-आहियविसेत्तत्त-अन्य hi पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने के कारण श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त ।।४४०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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