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________________ भगवतो३५वचनातिशेपाः कल्पसूत्रे अहियविसेत्तत्त ३१, सायारत्त३२, सत्तपरिगहियत्त३३, अपरिखेइयत्त३४, __ सशब्दार्थे अव्वोछेइयत्त३५॥२॥ ॥४३८॥ - शब्दार्थ-१-सकारत्ता-वाणी का संस्कारयुक्त होना-व्याकरणादि की दृष्टि से के निर्दोष होना । २-उदात्तया-स्वर का उदात्त-ऊंचा होना। ३-उवसारोपेयत्त-भाषा में ग्रामीणता न होना । ४-गंभीरझुणित्त-मेघ के शब्द के समान गंभीर ध्वनि होना । ५-अणुणाइया-प्रतिध्वनियुक्त ध्वनि होना । ६-दक्खिणत्त-भाषा में सरलता होना। ७-उवणीयरागत्त-श्रोताओं के मन में बहुमान उत्पन्न करनेवाली स्वर की विशेषता होना । -महत्थत्त-वाच्य अर्थ में महत्ता होना थोडे से शब्दों में बहुत अर्थ भरा हुआ होना । ९-अव्वाहयपुव्वापजत्त-वचनों में पूर्वापर विरोध न आना । १०-सिद्वत्त -अपने इष्ट सिद्धान्त का निरूपण करना, अथवा वक्ता की शिष्टता सूचित करने वाला अर्थ कहना । ११-असंदिधत्त-ऐसी स्पष्टता के साथ तत्व का निरूपण करना कि RBA ॥४३८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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