SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे दा ॥४१२ ॥ विस्सइ पन्नविस्सs परूविस्सइ दंसिस्सइ निदंसिस्सइ उवदंसिस्सइ १०॥६०॥ शब्दार्थ – [ एएसि णं दस महासुविणाणं] इन दस महास्वप्नों का [के महालए फलवित्तिविसेसे भवइति सो कहिज्जइ] किस प्रकार का महाफल होता है वह कहा जाता है [जपणं समणं भगवया महावीरेणं सुविणे ] जो श्रमण भगवान् महावीर ने स्व में [महाघोरदित्तरुवधरे तालपिसाए पराजिए दिट्ठे] जो भयंकर तेजस्वी स्त्ररूप धारण करनेवाले तालपिशाच को पराजित किया देखा [ते भगवं मोहणिज्जं कम्म उग्घाइस्सइ] इससे भगवान् मोहनीय कर्म को समूल नष्ट करेंगे १ [जं णं सुक्किल्लपक्खगे पुंसकाइले दिट्ठे ] जो सफेद पांखोंवाले पुरुष कोकिल को देखा [ते भगवं सुक्कज्झाणोare fastes] इससे भगवान् शुक्लध्यान से युक्त होकर विचरेंगे २ [जं णं चित्तविचित्तक्ख पुंसकाइले दिट्ठे ] जो भगवान् ने चित्रविचित्र पांखोंवाले पुरुष कोकिल को देखा [तेणं भगवं ससमयपरसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघविस्सइ पन्नविस्तर परू दशमहास्वप्नफल वर्णनम् ॥४१२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy