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कल्पसूत्रे शब्दार्थे
॥३०॥
दीवोत्ताणं, सरणगइपइद्वाणं अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं, वि अटु छउमाणं, जिणाणं, जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहियाणं, मुत्ताणं मोअगाणं, सव्वन्तुणं सव्वदरिसणं सिवमयलमउअमणंत मक्खयमव्वाबाहम पुणरावत्तियं सिद्धिगणामधेयं, ठाणं संपत्ताणं, णमो जिणाणं जीयभयाणं, णमोत्थुणं भगओ त्रिस्स आइगरस्स जाव संपाविओ कामस्स वंदामिणं भगवंतं तत्थगयं इहगए पास मे भयवं तत्थगए इहगयं तिकट्टु वंदइ णमंसइ २ ता सीहासणवरांसि पुरत्थाभिमु सणसणे | ९ |||४||
भावार्थ-उस काल और उस समय में शक नामक देवेन्द्र देवराज, हाथ में वज्र धारण करनेवाले, दैत्यों को विदारने वाले, सो बार श्रावक की पडिमा प्रतिमा के आराधक, सहस्र चक्षुओं के धारक, महामेघ जिसके वश में है ऐसा एवं पाक नामक दैत्य को शिक्षा करनेवाले,
शक्रन्द्रक्रततर
जन्म
महोत्सवः
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