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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥३३४॥
| वर्णनम्
प्रसाद नहीं किया। आत्मा की शुद्धिपूर्वक, सम्यक् मन वचन काय के व्यापार को भगवत
आचारपरिस्वयं ही आश्रित करके भगवान् जीवन-पर्यन्त निवृत्ति भाव से सम्पन्न, माया से रहित
पालनविधेऔर पांच समितियों से युक्त रहे । इस विधि मेधावी, अहिंसा परायण और इहलोकपरलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित भगवान् ने 'अन्य मुनि भी इसी प्रकार इस आचार का पालन करे' इस प्रकार विचार कर इस आचार का अच्छे प्रकार से पालन किया ॥५४॥ ___ मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे लाढदेसाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ । विचित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे दसमं चाउम्मासं ठिए। तत्थ णं अट्रमतवेणं एगराइयं भिवखुपडिमं पडिवण्णे झाणं झियाइ। तत्थ वि दिव्वे माणुस्से तेरिच्छे नाणाविहे उवसग्गे सम्मं सहइ। एवंविहेण विहारेण विहर- ॥३३४॥
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