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- कल्पसूत्रे
सशब्दार्थे
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पर भी चाहे व्यंजन आदि से संस्कार किया हुआ आहार मिले या संस्कार किया
भगवत हुआ न मिले, गीला मिले या भुने चने आदि रूखा सूखा मिले, वासी मिले या आचारपरि
पालनविवेपुराने उडद मिले, चने आदि के छिलके मिले या निःसार अन्न मिले, जो कुछ भी पालनात कल्पनीय मिल जाय उसी का आहार करते थे। भिक्षाचर्या में आहार मिला तो और | न मिला तो संयमशील भगवान् मध्यस्थ भाव में ही विचरते थे।
उकडू आदि आसनों से स्थित भगवान् वीर प्रभु मुख आदि किसी अंग पर विकार नहीं होने देते थे। इहलोक और परलोक की प्रतिज्ञा से रहित होकर तीनों लोकों के स्वरूप का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करके धर्मध्यान में संलग्न रहते थे। यद्यपि उस समय भगवान् केवलज्ञानी नहीं-छद्मस्थ थे, फिर भी क्रोध आदि कषायों से रहित थे, al
और शब्द रूप गंध रस और स्पर्श रूप पांचों इन्द्रियों के विषयों में अनासक्त थे। विशेष रूप से अपनी आत्मा का सामर्थ्य प्रकट करते हुए एक वार भी भगवान् ने
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