________________
कल्पसूत्रे शब्दार्थे
॥३२२॥
अथवा धूलि से आच्छादित कर देते थे । अथवा धूल ऊपर उछाल कर ताडना करते थे, अथवा आसन से नीचे गिरा देते थे। इतने सब उपसर्ग होने पर भी वे उन उपसर्गों को निःस्पृह होकर सहन करते थे । इस प्रकार भगवान् ने संवर युक्त होकर कठोर शीत उष्ण आदि के परीषों तथा मनुष्यादिकृत उपसर्गों को सहन करते हुए, संग्राम के अग्रभाग में शूर पुरुष के समान, स्थिर भाव से विहार किया । इस विधि - कल्प का मतिमान् 'माहन' अर्थात् किसी को कष्ट मत दो, इस प्रकार का उपदेश देने वाले तथा अप्रतिज्ञ भगवान् महावीर ने 'मेरे ही समान सब श्रमण परीषह सहन करके आचरण करें ऐसा विचार कर बार-बार पालन किया ॥ ५३ ॥
मूलम् - तर णं भगवं रोगेहिं अपुट्ठेऽवि ओमोयरियं सेवित्था । अहय सुणगदंसणाईहिं पुट्टे वि, काससासाइएहिं रोगेहिं अपुट्टे वि. भाविकाए णो से तेइच्छं साइज्जीअ भगवं संसोहणं वमणं गाय भंगणं सिगाणं संवाहणं
भगवतो लाढदेशविहरणम्
॥ ३२२ ॥