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उपकाराप
कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ।२८३॥
कारविपये भगवतः समभाव:
णयरीए चाउम्मासिय तवेण ठिए] सातवें चौमासे में आलंभिका नगरी में चोमासी तप के साथ स्थित हुए [अट्टमं चाउम्मासं रायग्गिहे नयरे चाउम्मासिय तवेण ठिए] आठवें चौमासे में राजगृह नगर में चौमासी तप के साथ स्थित हुए ॥५०॥
भावार्थ-नागसेन गाथापति के घर आहार ग्रहण करने के श्रमण भगवान् महावीर उस उत्तरवाचाल गांव से बाहर निकले निकल कर श्वेताम्बिका नगरी के बीचों बीच से चलकर जहां सुरभिपुर नामका नगरथा वहीं पधारते हैं। वहां पर महा अटवी में जाकर एक शून्य मकान में सम्पूर्ण रात्री तक के कायोत्सर्ग में स्थित हुए। वहां भगवान् महावीर स्वामी के समीप, पूर्वरात्री-अपररात्रिकाल के समय अर्थात् मध्यरात्री में एक मायावी और मिथ्यादृष्टि संगम नामक देव प्रकट हुआ। वह एकदम ही लाल नेत्रोंवाला हो गया, रूष्ट हो गया क्रुद्ध हो गया और भयानक आकार से युक्त हो गया। क्रोध से जलते हुए उस देव ने कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु से यह वचन कहे-'हं भो! इस प्रकार के अपमान
॥२८३॥