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________________ चण्डकोकल्पसूत्रे भगवान् ने क्षमा का जल सींच दिया इस कारण वह शांत और शान्तस्वभावी हो गया शिकस्य - सशब्दार्थे | [एयारिस सतिसंपन्नं चण्डकोसियं दणं पहू एवं वयासी-] इस प्रकार चंडकौशिक भगवदुपरि॥२५९॥ विषप्रयोगः को शान्ति संपन्न देखकर प्रभु ने इस प्रकार कहा-[हे चंडकोसिय ! ओबुज्झ, ओबुज्झ, चण्डकोकोहं ओमुंच, ओमुंच,] हे चण्डकौशिक ! बोध पाओं! बोध पाओ ! क्रोध को छोडो, शिकप्रति छोडो ! [पुव्वभवे कोहवसेणेव कालमासे कालं किच्चो तुवं सप्पो जाओ] पूर्व भव में बोधश्च क्रोध के वशीभूत होकर ही कालमास में काल करके तुम सर्प हुए । [पुणोऽवि पावं Fill करेसि तेण पुणोवि दुग्गइं पावेहिसि, अओ अप्पाणं कल्लाणमग्गे पवत्तेहि-त्ति] अब फिर पाप कर रहे हो तो फिर दुर्गति पावोगे, अतएव अपने आपको कल्याण-मार्ग में प्रवृत्त करो [एवं पहुस्स अमियसमं पबोहवयणं सोच्चा चंडकोसिओ वियारसायरे पडिओ पुत्वभवजाइं सरइ] प्रभु के अमृत के समान यह प्रबोध वचन सुनकर चण्डकौशिक विचार सागर में डूब गया । उसे पूर्व के जन्म का स्मरण हो आया [तेण सो IN ॥२५९॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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