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भगवतो. गोपकृतो.
करसस्त्रे सशब्दार्थे ॥२१॥
(पसर्ग
वर्णनम्
हैं। [नोणं देवा सुर, नाग, जक्न, रक्खस, किंनर, किंपुरिस, गरुल, गंधव्वमहोरगाइणं साहिज्ज इच्छंति] देवों, असुरों, नागों, यक्षों, राक्षसों, किन्नरो, किंपुरुषों गरुडों, गन्धों |
और महोरगों आदि देवों की सहायता की इच्छा नहीं करते [त्ति नो णं सक्का ! ममं कस्सवि साहेज्जपओयणं] हे शक्र ! मुझे किसी की सहायता का प्रयोजन नहीं है। [एवं सोच्चा सक्के देविंदे देवराया निय अवराहं खमाविय वंदइ नमसइ वंदित्ता नम- | सित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए] इस प्रकार सुनकर शक देवेन्द्र देवराज ने अपना अपराध खमाया और वन्दना नमस्कार कर जिस दिशा से प्रकट हुआ था उसी दिशा में चला गया ॥४४॥
भावार्थ-जिस समय श्रमण भगवान् महावीर क्षत्रिय कुण्डग्राम से विहार कर कुर्मार ग्राम के समीप गये, उस समय सूर्य अस्त हो गया, सूर्य अस्त हो जाने पर साधुओं को विहार करना नहीं कल्पता, ऐसा नियम है, ऐसा जानकर भगवान् महावीर |
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॥२१॥