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________________ प्रभुविरहे नन्दि .. वर्धनादीनां १९७|| Halविलाप वर्णनम् कल्पसूत्रे दिनमणी वि मंदधिणी जाओ। एगो अवरस्स दुक्खं परोप्परं दटुं दूयया इत्ति सशन्दार्थे विभाविय विय सहस्स किरणो अत्थमिओ। मूरे अत्थमिए धरा य अंधयारा | आच्छायणं धरी॥जणा य सोगाउरा विच्छायवयणा सयं सयंगिहं पडिगया।४३ शब्दार्थ-[तत्थ णंदिवद्धणेण वुत्तं] उन शोकाकुल लोगो में से नंदिवर्द्धन ने कहा- | हे वीर ! [अम्हे तं विणा सूण्णं वणं विव पिउकाणणं विव भयजणणं भवणं कहं गमिTil स्सामो] हे वीर ! तुम्हारे विना सुनसान वन के समान और स्मशान के समान भयंA कर भवन-राजभवन में हम किस प्रकार जाएँगे ? [हवंति य एत्थ सिलोगा-] इस स विषय में श्लोक भी है-[तए विणा वीर ! कहं वयामो] हे वीर । तुम्हारे विना हम til कसे जाए ? [गिहे अहूणा सुण्णवणोवमाणे] इस समय राजभवन तो सुनसान वन के समान जान पडता है [गोहीसुहं केण सहायरामो] हे वीर ! हम किसके साथ गोष्ठी | (वार्तालाप) के सुख का अनुभव करेंगे ? [भोक्खामहे केण सहाऽहबंधू] हे बन्धो ! हम ॥१९७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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