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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥१८७॥ वर्णनम् में भस्म हो गई। [पहुस्स दुस्सहो विरहो चंदविरहो चंगोरमिव] जैसे चन्द्रमा का प्रभुविरहे l वियोग चकोर को व्यथित करता है उसी प्रकार [हिययनिखायं सल्लमिव अखिले जणे वर्धनादी | वहिए करीअ] उसी प्रकार भगवान् का विरह हृदय में चुभे हुए कांटे के समान सभी विलाप| जनों को व्यथित करने लगा [परिओ वित्थरिएण कारेण पहुविरहंधयारेण आययलोय| णेसु समाणेसु वि तत्थढ़िया जणा अनयणा जाया] सब ओर फैले हुए विशाल प्रभु विरह के अन्धकार के कारण दीर्घनयन होने पर भी दीक्षास्थान पर विद्यमान जन नेत्र । | हीन जैसे हो गये [पाईणा समीईणा पर पगासणवीणा तत्थच्चा सोहा निव्वाणदीव सिहगिहसोहेव नासीअ] पहले की वहां की प्रभु के प्रकाश से नूतन और सलौनी | शोभा उसी प्रकार नष्ट हो गई, जैसे दीपशिखा के बुझ जाने पर घर की शोभा नष्ट हो जाती है । [पहुम्मि विरहिए समाणे पयंसि गलिए नईपुलिणमिव रसे गलिए दल| मिव जणमणो संजाओ] जैसे पानी के बह कर निकल जाने पर नदी का तट शोभा ॥१८७
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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