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कापसूत्रे मधन्दाथै १७५॥
पखवाडा (पक्ष) था अर्थात् मार्गशीर्ष का कृष्णपक्ष था [तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दस- भगवतः
सर्वालङ्कारमीए तिहीए सुव्वएणं दिवसेणं] उस मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की दसमी तिथि में सुबत
त्यागपूर्वक | दिन में [विजएणं मुहुत्तेणं] विजय मुहूर्त में [हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं] उत्तराफाल्गुणी सामायिक 'नक्षत्र के साथ [चंदेण जोगमुवगएणं पाइणगामिणीए छायाए वियत्ताए] चन्द्रमा का lion चारित्र
प्रतिपत्तिः योग होने पर छाया जब पूर्व की ओर जा रही थी [पोरसीए छ?णं भत्तेणं अपाणएणं भगवं महावीरे] और जब दिन का एक प्रहर शेष रह गया था, ऐसे समय में, निर्जल षष्ठ भक्त (चोवीहार बेला) के साथ भगवान महावीर ने [दाहिणेणं हत्थेणं दाहिणं वामेणं हत्थेणं वाम पंचमुट्टियलोयं करेइ] दाहिने हाथ से दाहिणी तरफ का और बायं हाथ से बांयी तरफ का पंचमुष्टिक लोच किया [तओ सग्गाहिवे देविंदे देवराया] तब स्वर्ग का अधिपति देवेन्द्र देवराजने [भगवं] भगवान को सिदोरयमुहपत्तिं] सदोरकमुखवस्त्रिका [रयहरण] रजोहरण [गोच्छगं] गोछा [पडिग्गयं] पात्रा एवं [देवदूसं वत्थं] देवदूष्यवस्त्र
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