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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ ॥१५४॥ भगवान को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोले- 'जय जय हो भगवन् ! बोध प्राप्त करिये हे तीन लोक के नाथ ! [ सव्वजगजीवरक्खणद यट्टयाए पवत्तेहि धम्मतित्थं] समस्त जगत् के जीवों की रक्षा और दया के लिये धर्म तीर्थका प्रवर्तन कीजिए [जं सव्वलोए सव्वपाणभूयजीवसत्ताइं खेमंकरं आगमेसिभदं च भविस्सइत्ति ] जो सर्वलोक में सर्व प्राणियों, भूतों जीवों और सत्त्वों के लिए क्षेमंकर होगा और भविष्य में कल्याणकर होगा । [जं सयं बुद्धवि भगवओ अभिणिक्खमणत्थं देवाणं कहणं तं तेसिं देवाणं जीयकं ] स्वयंबुद्ध भगवान को प्रवज्या ग्रहण करने के लिए देवों का जो कथन है वह उनका जीतकल्प है - परम्परागत आचार है । [तयाणं समणे भगवं महावीरे संवच्छरदाणं दलइ ] उसके बाद भगवान महावीर वर्षी दान देने लगे [तं जहा - पुत्रं सूराओ जाव जामं अटू सयसहस्साहियं एगं कोडिं एगदिवसेणं दलइ] वह इस प्रकार - - सूर्योदय से पहले एक प्रहर दिन तक एक भगवतः संवत्सर दानपूर्वक निष्क्रमण वर्णनम् ॥१५४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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