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कल्पसूत्रे . अन्तिम-चौबीसवें तीर्थंकर हैं।
भगवतः सशब्दार्थे ।
कलाचार्यश्री वीर भगवान् का परिचय देने के पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज ने श्रमण भग- समीपे ॥१४४॥ वान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके जिस दिशा
प्रस्थानादि से प्रकट हुए थे, उसी दिशा में चले गये। श्री वर्द्धमान स्वामी बढिया सजाये हुए
वर्णनम् गजराज पर सवार होकर साथ आये हुए, एवं शिक्षास्थान में एकत्र हुए जनसमूह
द्वारा तथा परिजन समूह के द्वारा पुनः पुनः निर्निमेष दृष्टि द्वारा देखे जाते हुए प्रस॥ नतापूर्वक अपने राजमहल में चले गये। :
इन्द्र द्वारा किये गये प्रश्नों के समाधान, कलाचार्य को संतुष्ट करना एवं सकलजनों को प्रसन्न करना-इस प्रकार की श्री वीरस्वामी की प्रवृत्ति से माता-पिता के
। तथा आदि शब्द से भाई विगैरह के मन में प्रबल हर्ष-रूपी सागर की बार-बार उछ. .. लती एवं चंचल तरंगे समा न सकीं। आशय यह है कि वह हर्ष भीतर न समाया तो 8 ॥१४४॥