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त्रिशलादेवी कृतपुत्र
कल्पसूत्रे मशब्दार्थे ॥१०१॥
स्तुतिः
SENTEEYAसम्यानक
जैसे सत्पुत्र से यह तीनों लोक गुणगण से सुवासित होते हैं जैसे सुगन्धियुक्त खिले हुए पुष्पों के गुच्छों से शोभित कल्पवृक्ष से नन्दनवन [अतेलपूरेण मणिदीवेणेव य पगासिज्जइ] तथा तैलरहित मणिदीप गृहादिक को प्रकाशित करता है उसी प्रकार तेरे जैसा पुत्र तीनों लोक को प्रकाशित करता है [अपासिज्जइ य हिययदरीचरी चिरंतणाणाण| तिमिरराई] और जो त्रैलोक्यवर्ती जीवों के हृदयरूपी गुफा में संचरण करने वाले चिरकालिक अज्ञानरूप अंधकार-समूह को दूर करता है। [सच्चं वुत्तं] सच ही कहा है- [पत्तं न तावयइ] जो पात्र को संतप्त नहीं करता [नेव मलं पसूए] मल को उत्पन्न नहीं करता [णेहं न संहरइ] स्नेह का संहार नहीं करता [नेव गुणेखिणेइ] गुणों का नाश नहीं करता [दव्यावसाणसमए चलयं न धाइ] और द्रव्य के विनाश काल में अस्थिरता को प्राप्त नहीं होता है [पुत्तो इमो कुलगिहे किल को वि दीवो] ऐसा यह पुत्र रूप दीपक कुलरूपी गृह में कोई विलक्षण ही दीपक है। [एसो लोगुत्तरगुणगण
॥१०॥