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मुनिहर्षिणी टीका अ. १ असमाधिस्थानवर्णनम्
भवितव्यम्, शान्तिजनक शब्दोच्चारणेन घोरधनघटा विघट्टनेन सूर्य इवाऽऽत्मगुणगणः प्रकाशते । इति ॥ मु० १८ ॥
मूलम् - सूरप्पमाणभोई ॥ सू० १९ ॥ छाया - सरप्पमाणभोई || १९||
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टीका- 'रे' त्यादि । नूरप्रमाणभोजी - सूर्योदयात्सूर्यास्तगमनं यावदनपानव्यवहारी, सूर्योदयात्सूर्यास्तगमनकालपर्यन्तं पुनः पुनरानीय भोजनशील इत्यर्थः, अयं सात्रः- अपरिमितभोजनेन समाधिर्न लभ्यते, अतोऽन्तमान्वाद्याहारो निर्दोषोऽपि प्रमाणेन कार्यः । प्रमाणाधिकाऽऽहारेण विषूचिकादिरोगवृद्धिस्वाध्यायादिकाभाव - स्त्रविराधना - संयमविराधनारूपाऽसमाधिस्थानप्राप्तिः सम्भवति ॥ सू० १९ ॥
इसलिये समाधि प्राप्त करने वाले सुनि को चाहिये कि सर्वथा शान्तिकारक शब्दों का उच्चारण करे । शांतिजनक शब्द बोलने से जैसे सूर्य बादलों की घोर घटा के दूर होने पर प्रकाशित होता है वैसे ही आत्मगुण प्रकाशित होजाते हैं || सू १८ ॥
'सूर०' इत्यादि । सूर्य के उदय से लेकर सूर्य के अस्तपर्यन्त जो सुनि भोजनको वारंवार लाकर खाने पीने का व्यवहार करता है, वह असमाधिस्थान के दोष का भागी बनता है । तात्पर्य यह है कि बिना प्रमाण के भोजन करनेसे समाधि मिलती नहीं । अतः अन्नपानादि आहार निर्दोष होने पर भी प्रमाणसे करना चाहिये । प्रमाण से अधिक आहार करने से विपूचिकादि (संग्रहणी आदि) रोगों की वृद्धि होती है | स्वाध्याय आदि हो सकता नहीं । और स्वविराधना संयमશાન્તિકારક શબ્દનું ઉચ્ચારણુ કરવું જોઈએ શાંન્તિજનક શબ્દ માલવાથી જેમ સૂ વાદળની ઘેરઘટાથી દૂર હાવાથી પ્રકાશિત થાય છે તેવીજ રીતે આત્મગુણુ પ્રકટ यह लय हे (सू० १८)
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सूर० ' इत्याहि, सूर्यना ध्यथी भांडीने सूर्यना व्यस्त पर्यन्त ने भुनि ભેાજનને વારવાર લઇ આવીને ખાવાપીવાના વ્યવહાર કરે છે તે અસમાધિસ્થાનના દોષને ભાગીબનેછે, તાત્પય એ છે કે પ્રમાણ વિનાનુ ભાજન કરવાથી સમાધી મળતી નથી માટે અન્ન પાન આદિ આહાર નિર્દોષ હોય તે પણ પ્રમાણસર કરવા જોઇએ. પ્રમાણુથી વધારે આહાર કરવાથી વિચિકાદિ (સગ્રહણી આદિ ) રાગની વૃદ્ધિ થાય છે