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मुनिर्पिणी टीका भगशब्दार्थ वर्णनम् परीषहोपसर्गसहनसमुद्भूता कीर्तिः, यद्वा - जगद्रक्षणमज्ञासमुत्था कीर्तिः, (४) वैराग्यम् - सर्वथाकामभोगामिलाषराहित्यम्, यद्वा - क्रोधादिकपायनिग्रहलक्षणम्, (५) मुक्तिः-सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, (६) रूपम्-सकलहृदयहारि सौन्दर्यम्, (७) वीर्यम्-अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामर्थ्यम्, (८) श्रीः-घनघातिकर्मपटलविधटनजनितज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूपानन्तचतुष्टयलक्ष्मीः (९) धर्मः-अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाधनीभूतः श्रुतचारित्रलक्षणः, (१०) ऐश्वर्यम्-लोकत्रयाधिपत्यं चास्याऽ
(१) ज्ञान - जीवादि पदार्थों का प्रकाश करनेवाला बोध । (२) महात्म्य - अनुपम महिमा । (३) यश - अनेकप्रकार के अनुकूल और प्रतिकूलपरीषह उपसर्ग को सहन करने से उत्पन्न हुई कीर्ति । (४) वैराग्य--कामभोगों की इच्छाका सर्वथा त्याग, अथवा क्रोधादि कषायों का निग्रह । (५) मुक्ति-समस्त कर्मों का नाश स्वरूप मोक्ष । (६) रूप-देवमनुष्यों के हृदय को हरण करने वाला सौन्दर्य। (७) वीर्य--अन्त रायकर्मका नाश होनेसे आत्मा में उत्पन्न होनेवाला अनन्त बल । (८) श्री--घनघाति कोंके नाश होजाने पर प्रगट हुई ज्ञान दर्शन सुख
और वीर्यस्वरूप अनन्तचतुष्टयलक्ष्मी । (९) धर्म-श्रुतादिरूप, तथा
यथाख्यातचारित्रस्वरूप जो कि मोक्षका द्वार खोलने में साधन है। .: (१०) ऐश्वर्य--तीनलोक का स्वामित्व ।
(१) ज्ञान- पाहि पहा A ४२वापाको माध. (२) महात्म्यअनुपम भलिभा. (3) यश- भने प्रा२ना भानु तेभर प्रतिकूल परिषड 64साने सहन ४२वाथी उत्पन्न थयेeी ति. (४) वैराग्यमानी छाने सर्वथा त्याग, अथवा या पायन निs (५) मुक्ति- समस्त ना नाथ २१३५ मोक्ष (6) रूप- व मनुष्योनायने रवावा. सोय. (७) वीर्य- अन्तराय ४भनि नाश थवाथी मामाभi Sun तु मनन्त म (८) श्री-धनधाति भनि। નાશ થવાથી પ્રાપ્ત થયેલી જ્ઞાન દર્શન સુખ તથા વીર્યસ્વરૂપ અનન્તચતુષ્ટલક્ષમી. (6) धर्म- श्रुत मा ३५, तथा ययाव्यात याचित्र २१३५, रे भाक्षनां द्वार पोवामा साधन छे. (१०) ऐश्वर्य-योन स्वामित्व