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________________ ४४७ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ४, शकटवर्णनम् मासे कालं कृत्वाऽस्यां 'रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए' रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकेषु नैरयिकतया 'उपवजिहिइ' उत्पत्स्यते । 'संसारो' संसाराभवाद् भवान्तरे भ्रमणम् 'तहेव' तथैव यथा प्रथमे-प्रथमाध्ययने मृगापुत्रस्य वर्णन इति भावः। 'जाव पुढवीसु' यावत् पृथिवीषु, अत्र यावच्छब्दात्-सपादियावत् पृथिवीषु भ्रमणं बोध्यम् , तच्च प्रथमाध्ययनस्यैकविंशतितमसूत्रतो विज्ञेयम् । 'से गं' स खलु 'तओ अणंतरं' ततोऽनन्तरं 'उबट्टित्ता' उद्धृत्य=निःमृत्य 'वाराणसीए णयरीए' वाराणस्यां नगर्यां मच्छत्ताए' मत्स्यतया 'उववजिहिइ' उत्पत्स्यते । ' से णं तत्थ ' स खलु तत्र ‘मच्छे' मत्स्यः मत्स्यदेहधारी, ‘मच्छवधिएहिं ' मत्स्यवधिकैः मत्स्यघातकैः ‘वहिए' वधिता वधं प्राप्तः-हत इत्यर्थः, 'तत्थेव' तत्रैव 'वाणारसीए णयरीए सेहिकुलंसि पुतत्ताए' वाराणयां नगर्यां श्रेष्ठिकुले पुत्रतया 'पञ्चायाहिइ' प्रत्यायास्यति-उत्पस्यते । 'वोहि' बोधि कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जेरइयत्ताए उववजिहिइ' यह अपनी प्रवृत्ति से मलिनतम अनेक पापकों को उपार्जित कर आयु के अन्तसमय मरकर इसी रत्नप्रभा पृथिवी में नारकी की पर्याय से उत्पन्न होगा । इसका 'संसारो तहेव जाव पुढवीसु' परिभ्रमण उसी प्रकार होगा-जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का प्रकट करने में आया है-संसारभ्रमण इसका मृगापुत्र के समान ही समझना । 'से णं तओ अणंतरं' पृथिवीकाय आदि में अनेकवार परिभ्रमण कर वहां से निकलकर 'वाणारसीए णयरीए' बनारस नगरी में मच्छत्ताए उववजिहिइ' मत्स्य की पर्याय से उत्पन्न होगा । ' से णं तत्थ मच्छे मच्छवधिएहिं वहिए' यह उस पर्याय में मच्छीमारों द्वारा मारा जाकर 'तत्थेव वाणारसीए __णयरीए सेटिकुलंसि पुत्तत्ताए' उसी वाणारसी नगरी में किसी श्रेष्ठी के समन्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववन्जिहिइ' ते पातानी मलिनतम प्रवृत्तिथी मने पा५४नि पारित प्रशन આયુષ્યને અત્ત સમયે મરણ પામીને રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નારકીની પર્યાયથી ઉત્પન્ન यश तनु संसारो तहेव जाव पुढवीसु, परिभ्रम मा प्रमाणे यश, २ प्रमाणे પ્રથમ અધ્યયનમાં મૃગાપુત્રનું વર્ણન પ્રગટ કરવામાં આવ્યું છે–સંસારભ્રમણ મૃગાपुत्र प्रमाणे ४ सभ७ नये. ‘से णं तओ अणंतरं'. पृथिवीयि माहिम मने पा२ परिभ्रम ४शन त्यांथी नीजीन 'वाणारसीए णयरीए' नारस नगरीमा मच्छत्ताए उववज्जिहिइ मत्स्यनी पर्यायथा उत्पन्न थशे. “से ण मच्छे मच्छवधिएहिं वहिए' ते मे पर्यायमा भन्छीमारीद्वारा भार्या नये पछीथी 'तत्थेव वाणारसीए णयरीए सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए' मे २सी नगरीमा जोड
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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