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________________ ४३२ विपाकश्रुते भुञ्जानो 'विहर विहरति । 'तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए गिहाओ' ततः खलु स शकटो दारका सुदर्शनाया गृहात् 'पिच्छूढे समाणे निक्षिप्तः निःसृतः सन् 'अण्णत्य कत्यवि' अन्यत्र कुत्रापि 'सुई वा रई वा धिई वा' स्मृति वा रतिं वा धृति वा, 'अलभमाणे' अलभमानः, 'जाव विहरई' यावद् विहरति, अत्र यावच्छब्दादेवं बोध्यम्-तचित्तः, तन्मनाः, तल्लेश्यः, तद्ध्यवसायः, तदर्थोपयुक्तः, तदर्पितकरणः, तद्भावनाभावितः, सुदर्शनाया गणिकाया बहूनि अन्तराणि च छिद्राणि च विवराणि च प्रतिजाग्रत् प्रतिजाग्रद् विहरति । एषां व्याख्याऽस्यैव द्वितीयाध्ययने १९ एकोनविंशतितमे सूत्रे निगदिता । 'तए णं से सगडे दारए अग्णया कयाई सुदरिसणाए अंतरं ततः खलु स शकटो दारका अन्यदा कदाचित् सुदर्शनाया अन्तरम् अवसरं गृहे प्रवेष्टुमिति भावः, 'लभेइ लभते । 'लमित्ता' लब्बा, 'रहस्सियं राहसिकं 'सुदरिसणाए गिहम् माणुस्सगाई भोगभोगाई और उस सुदर्शना गणिका के साथ मनुष्यसंबंधी कामलोगो को 'भुंजमाणे विदरई' भोगता हुवा रहने लगा । 'तए णं से सगडे दारए मुदरिसणाए गिहाओ णिच्छुढे समाणे इस प्रकार वह शकट दारक उस सुदर्शना वेश्या के घर से निकाला हआ 'श्रणत्य कत्थवि सुई वा रई वा घिई वा अलभमाणे जाब विहरई' अन्यत्र किसी भी स्थान में उसे उसके सिवाय और किसी भी पदार्थ की न तो स्मृति आई, न इसके मन में किसी भी प्रकार से चैन पडी और न कहीं , पर उसे आश्वासन ही मिला 'तए णं से सगडे दारए अण्णया कयाई मुदारिसणाए अंतरं लभेई इस प्रकार अस्तव्यस्तपरिस्थितिसंपन्न हुए उस शकट दारक को किसी एक समय सुदर्शना के घर में प्रवेश करने के लिये अवसर हाथ आ गया । 'लभित्ता रहस्सियं मुदरिसणाए गिड़ माधीनगन भुजमाणे विहरहर लागवत थी रवाय. 'तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए गिहाओ णिच्छूढे समाणे' से प्रभाहो ते २४८ २६ ते सुना वेश्यानवेश्या नागेशो 'अण्णय कत्थवि मुई वा रई वा घिई वा अलभमाणे जाब विहरई भन्य-भात स्थणे गया. त्यां तेने सुदर्शन वेश्या विना બીજે કઈ પદાર્થ સાંભર્યો નહિ. તેમજ તેના મનમાં કઈ પ્રકારે ચેન પડયું નહિ. તેમજ भीत थने तेने शांति भणी नहि. 'तए णं से सगडे दारए अभ्णया कयाई मुदरिसणाए अंतरं लभेइ' मा प्रभारी मत-व्यस्तवाणी परिस्थिति पाभेडो तेश દારકને કોઈ એક સમયે સુદર્શન વેશ્યાના ઘરમાં પ્રવેશ કરવાનો અવસર મળી ગયે 'लमित्ता रहस्सियं मुदरिसणाए गिह अणुप्पविसइ' अवस२ मतांची सात ते
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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