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________________ ३६६ विपाकभुते ग्रहीतुं शक्यः स्यादित्यर्थः । 'तए णं से महब्बले राया' ततः खलु स महावलो राजा 'जेवि य येऽपि च 'से तस्याभन्नसेनस्य 'अभितरगा आभ्यन्तरकाः आसन्ना मन्त्रिप्रभृतयः, 'सीसगसमा शीर्षकसमाः यथा शीर्षकं मस्तकं शरीरस्व रक्षकं तथा ये तस्य रक्षकास्ते तया इत्यर्थः, तथा 'मित्त-णाइणियग-सयण-संबंधि-परियणा' मित्र-ज्ञाति-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनाः, 'तेवि य गं तानपि च खलु 'विउलेणं विपुलेन 'धणकणगरयणसंतसारसावएजेणं धनकनकरत्नसत्सारस्वापतेयेन, 'भिंदई भिनत्ति, तेषाम् 'अभन्नसेनचोरसेनापतो स्नेहं भञ्जयति, स्वस्मिन् स्नेहमुत्पादयतीत्यर्थः। अभग्गसेगस्त य चोरसेणावइस्स अभन्नसेनस्य व चौरसेनापतेः समीपे 'अभिक्रुणं २ अभीक्ष्णम् २ पुनः पुनः 'महत्याई' महार्थानि महाप्रयोजनानि, 'महन्याई' महायोणि-महामूल्यानि, 'महाचाहिये, जब इसे पुरा विश्वास जम जायगा तब सरल रीति से 'त्यत्ते यह अपने द्वारा गृहीत हो जायगा। 'तए णं से महव्वले राया सेनापति की इस प्रकार सलाह सुन चुकने के बाद उस महाबल राजा ने 'से' उल अभग्नसेन के 'जेनि य' जितने भी 'अभिंतरगा' सदा उसके निकट बैठने वाले, मंत्री आदि जन थे, 'सीसगसमा जितने भी उसके अंगरक्षक थे, 'मित्त-जाइ-णियग-सया-संबंधी-परियणा' और जो भी उसके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी, परिजन थे 'तेवि य णं उन सब को 'धणकणगरयणसंतसारसायएज्जेणं मिदइ धन से, कलक से, रत्नों से उत्तमोत्तमवस्तुओं से एवं लप्या पैसा आदि से फोड लिया, अमलसेन के ऊपर जो इन सब का स्नेह था, उसे दूर कर दिया और अपने ऊपर अतुरक्तियुक्त बना लिया। तथा 'अभागलेणस्स चोरणावइस्स अभिक्खणं अभिरखणं महत्याई महन्याई જોઈએ. જ્યારે તેને આપ પર પૂરે વિશ્વાસ જામી જાય ત્યારે સરલ રીતિથી 'उवते ते भायहाथी ५:15 नशे 'तए णं स महबले सेनातिनी भी પ્રકી સલાહુ સાંભળી લીધા પછી તે સડબલ રાજવીએ છે તે અનસેનના जेवि या तेना ' अभितरगा शां तेनी पाले मेसा पाणा मात्र माहि मासी ता, 'सीसगसमा रेसा तेना मगरक्षा उता 'मित्तणाइणियगसयणसबंधिपरियणा भने भी रेतना भित्र, ज्ञाति, निrs, पान, समाधी पनि तi 'तेवि य णं' ते तमामने 'धणकणगरयणसंतसारसावएज्जेणं सिंदा नथी, सोनाधी, रत्नाथी, तमोत्तम पन्तुमाधी मते ३पिया-पैसा આદિથી ફેડી લીધા. અભસેનના ઉપર તે સૌને સ્નેહ હતો તેને દૂર કરી અને योताना ५२ प्रसन्न २९ तेभ पनायी दीधा तया 'अभगसेणस्स चोरणावइस्स
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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