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विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, एकादिराष्ट्रकूटवर्णनम् १२१ प्ररज्यते यः स तथा, अधर्मशीलसमुदाचारः आचारविचारशून्यः, अधर्मेणव वृत्तिजीविकां कल्पयन् कुर्वाणो विहरति । पुनः-जहि-मारय, छिन्धि छेदय, भिन्धि भेदय-इति भाषणशीलः, विकतका नासिकादिकत्तेनशीलः, अतएवलोहितपाणिः रुधिरखरण्टितहस्तः, चण्ड: कोपनः, रुद्रः भयजनकः, क्षुद्रः क्षुद्र: नुद्धिकः, असमीक्षितकारी-अविमृश्यकारी, अत एव-साहसिका दुस्साहसवान्, उत्कञ्चनःउत्कोचग्राही, वञ्चना-प्रतारकः, मायी-मायाकरणशीलः, निकृतिः= निकृतिमान्-गूढमायी, कूटमायी गूढमायाच्छादनार्थे पुनर्मायाकारकः, साति
और यह 'अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ' अधर्म से ही अपनी ____ आजीविका करता था। फिर यह* ‘हण, छिंद, भिंद'-मारो, काटो, . .
भेदन करो'-इत्यादि वाक्य बोलता रहता था। 'विकत्तए' विकतकप्राणियों के नाक आदि अवयवों को काटनेवाला था, इसलिए 'लोहियपाणी' लोहितपाणि-इसके हाथ खून से भरे रहते थे। यह 'चंडे' चंड-बडा क्रोधी और 'रुद्दे' रुद्र-भयानक था, 'खुद्दे' बुद्धि इसकी तुच्छ थी, यह 'असमिक्खियकारी' असमीक्षितकारी-विना विचारे कार्य कर बैठता था, अतः यह 'साहस्सिए' साहसिक-बडा ही दुस्साहस वाला था, 'उकंचण-वंचण-माई' यह 'उत्कंचन'-घूस-रिश्वतखानेवाला पूरा था, 'वचन' दूसरे को ठगने में बडा चतुर था, 'मायी' कपटशील था, 'नियडी' निकृतिबाला-शूढकपटी और कूडमाई' कूटमायी-किये हुए एक कपट को दूसरे कपट से छिपा लेता था, * 'हण' यहा से लेकर दुप्पडियाणंदे तक के विशेषण दशाश्रुतस्कन्ध में हैं। मान्यार मने वियाशथी मेश हित तो, भने त 'अहम्मेणं चेव वित्तिं . कप्पेमाणे विहरइ' अधर्म था पावि ४२. डतो. शी ते अहण, छिंद, भिंद' भारी, टो, मन ४२१-४त्या वाय. मोसतो तो तो. 'विकत्तए' वित्त'-lगाना ना माहि अवयवान अपवावाजा हतो, तेथी ४२री 'लोहियपाणी'-तना हाथ सोडीथी १२.मेला २४ता. ते 'चंडे-महान धी म 'रुद्दे '-लयान हतो, 'खद्दे -२७ भुद्धिवाजा तो. तभ. 'असमिक्खियकारी'-मसभीक्षिता-पिना विया आय शसतो तो, तेथी ते 'साहस्सिए'-साइसि-मारे साडस ४२नार डतो. उक्कंचण-वंचण-माई' &यन-aiय३श्वत मापावाणी ५२। हता, વંચન-બીજાને ઠગવામાં બહુ જ ચતુર હતા, માયી-માયામાં–કપટમાં કુરાળ હતા. 'नियडी'-शुढ७५Ast. 'कूडमाई'-४२॥ २ ४५टने .भी पट * 'पण' keTथा सधन 'दुप्पडियाणंदे' भी सुना विशेष दशाश्रुतस्कंध' भा छ,