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विकथुते
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भूतिर्नामाऽनगारः, 'जाव विहरइ' यावद्विहरति । अत्र यावच्छ देन - सप्तोत्सेध:= सप्तहस्तप्रमाणशरीरः समचतुरस्र संस्थानसंस्थितः - इत्यादि वर्णनं भगवतीसूत्रतो विज्ञेयम् । तथाविधोऽसौ ऊर्ध्वजानुः अधः शिराः कृताञ्जलिपुटः, उत्कुटुकासंनः, ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरतीत्यर्थः ।
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'तर णं से भगवं गोयमे तं जाइअं पुरिसं पासइ' ततः खलु "स भगवान् गौतमस्तं जात्यन्धं - जन्मान्धं पुरुषं पश्यति, 'पासिता जायसड्ढे ' दृष्ट्वा जातश्रद्धो 'जावं' यावत् - जातसंशयः जातकुतूहल : - इत्यारभ्य समुत्पन्नकुतूहल:, अंतेवासी' बडे शिष्य ' इंदभूई णामं अणगारे ? इन्द्रभूति नामके अनगार थे, ' जाव विहरइ ' जो सात हाथ की अवगाहनावाले और समचतुरस्र - संस्थान से युक्त थे। जो जानु को ऊंचे और मस्तक को नीचे किये हुए हाथ जोड कर उकडे आसन से बैठते थे । ये ध्यारूपी कोष्ठ में निमग्न हुए संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । तणं से भगवं गोयमे' तदनन्तर उन गौतम स्वामीने 'तं जाइअंधं पुरिसं पासई' उस जात्यंध - जन्मांध पुरुष को देखा, 'पासित्ता' देखकर उन्हें अन्धों के विषय में पूछने की श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, और उत्सुकता भी उत्पन्न हुई। इसी तरह उन्हें उसके विषय में और भी द्वितीय सूत्र में प्रतिपादित उत्पन्नश्रद्धा आदि परिणाम उद्भूत हुए । यही बात 'जायसड्ढे जाव' इस पद द्वारा यहां प्रदर्शित की गई है । 'जातश्रद्धा' आदि परिणामों में और 'उत्पन्नश्रद्धा' - आदि परिणामों में क्या अन्तर है ? इस विषय का स्पष्टीकरण यहीं द्वितीय सूत्र की व्याख्या में 'इंदभूई नामं अणगारे ' द्रभूति नामना अणुशार इता. 'जाव विहर' ते सात હાથની અવગાહનાવાળા અને સમચતુસ્ર-સસ્થાનથી યુકત હતા, ' જે ઢીચણાને ઉંચે રાખીને તથા મસ્તકને નીચે નમાવીને હાથ જોડીને ઉકડુ-આસનથી બેઠા હતા, અને તે ધ્યાનરૂપી કાષ્ઠમાં એકતાર થઈને સંયમ તથા તપથી આત્માને ભાવિત કરતા થકા विरता ता. 'तए णं से भगवं गोयमे' ते पछी ते गौतमस्वाभीमे 'तं जाइअंध पुरिसं पास' ते नत्य नभांध पुरुषने लेया, 'पासित्ता' लेने अधोना विषयभां
પૂછવાની તેને શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ, સરૂંશય ઉત્પન્ન થયા, અને ઉત્સુકતા પણ ઉત્પન્ન થઇ. એ જ પ્રમાણે તેમને ખીજા સૂત્રમાં કથિત ‘ઉત્પન્નશ્રદ્ધા' આદિ પરિણામ ઉત્પન્ન થયાં. એ चात 'जायसड्ढे जाव' आा यह द्वारा सहीं अहर्शित मेरी छे 'जातश्रद्धा' माहि
भाभां भने ‘उत्पन्नश्रद्धा' आदि परियाभाभांशु मंतर, छे?
विषयर्नु