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________________ ४२० उत्तराध्ययनसूत्रे टीका--'लोगेगदेसे' इत्यादि । — सर्वे-निरक्शेषाः, ते उक्ताः स्त्रीसिद्धादयः, सिद्धाः ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः-ज्ञानदर्शनोपयोगवन्तः, संसारपारनिस्तीर्णाः संसारस्य, पोर:=पर्यन्तस्तं निस्तीर्णाःअपुनरागमनस्वरूपेणाऽधिक्येनाऽतिक्रान्ताः सिद्धिं वरगतिम् , गताः सन्तः, लोकैकदेशे लोकाप्रभागे सन्ति। लोकैकदेशे इत्यनेन 'मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवजिताः” इति कस्यचिदुक्तिः परास्ता । आत्मनां सर्वगतत्वे हि सर्वत्रावस्थानं संभवति, सर्वगतत्व फिर भीसिद्धोंका क्षेत्र और स्वरूप कहते हैं- 'लोगेगदेखे' इत्यादि। अन्वयार्थ (ते सव्वे-ते सर्वे) वे सब स्त्रीपर्याय आदि मनुष्यपर्याय से सिद्ध हुए जीव (नाणदंसणसन्निया-ज्ञालदर्शनसंज्ञिताः) ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोगले विशिष्ट है । तथा (संसारपारनित्थिन्ना-संसार पारनिस्तीर्णाः ) संसारके पार पहुंचे हुए हैं। इसीलिये वे (वरगइं सिद्धि गया-वरगति सिद्धिं गताः) सर्वोत्कृष्ट गति सिद्धिगतिमें प्राप्त हो चुके हैं। सूत्रकार इन विशेषणोंमेंसे "लोकैकदेश' इस विशेषणसे यह समथित करते हैं कि जिनकी ऐसी मान्यता है कि "मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवजिताः" आकाशकी तरह युक्त जीव संतोपसे रहित होकर इस समस्त लोकलें ठहरे हुए हैं वह ठीक नहीं है। कारण कि इस कथनले आत्माका, सर्वत्र अवस्थान प्रतिपादित होता है। आत्माका सर्वत्र अवस्थोन मोनने में अनेक दोष आते हैं। कारण कि आत्माको पछी ५५ सिद्धाना क्षेत्र मन ५१३५ने छ-"लोगेगदेसे" त्या मन्वयार्थ ते सव्वे-ते सर्वे न्ये साखी पर्याय या मनुष्य पर्यायथी सिद्ध मानस व नाणदसणसंन्निया-ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः ज्ञानोपयो भने शन:पयोगथी विशिष्ट छ. संसारपारनित्थिन्नो-ससारपारनिस्तीर्णाः तथा संसारथी पार पाय छे. २मा १२0 तेया वरगई सिद्धिं गया-वरगति सिद्धिं गताः સર્વોત્કૃષ્ટ ગતિ સિદ્ધગતિમાં પ્રાપ્ત બની ચૂકેલ છે. સૂત્રકાર આ વિશેષણમાંથી "लोकैकदेश" या विशेषाथी से समर्थन ४२ छ , भनी सवा मान्यता छ , “मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति व्योमवत्तापवर्जिताः " मशिनी भा સુકત જીવ સંતાપથી રહિત બનીને આ સમસ્ત લેકમાં રહેલા છે એ ઠીક નથી. કારણ કે, આ કથનથી આત્માનું સર્વત્ર અવસ્થાન પ્રતિપાદિત થાય છે. આત્માનું સર્વત્ર અવસ્થાન માનવામાં અનેક દોષ આવે છે. કારણ કે,
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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