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उत्तराध्ययनसूत्रे दिवाघोपकारकस्नायु चमकाष्ठाद्यथै त्रसस्थावरात्मकजीवान , हिनस्ति । कांश्चित्तु तान् चित्रैः परितापयति-अपरांश्च पीडयति । व्याख्यापूर्ववत् ॥ ४०॥
'सदाणुगा' इत्यादि।
अन्वयार्थ (किलिडे-क्लिष्टः) मनोज्ञ शब्दोंको सुननेके अनुरागसे बाधित हुआ तथा (अत्तट्ट गुरु-आत्मार्थ गुरुः) मनोज्ञ शब्द श्रवणरूप प्रयोजन ही जिसने करने योग्य कार्यों में प्रधान मान रक्खा है और इसीलिये जो (बाले-बालः) हित और अहितके विवेकसे विकल है ऐसा (सद्दाणुगासाणुगए-शब्दानुगाशानुगतः) काकली गीतादिरूप ध्वनि अर्थात् गानकी मधुरध्वनिको सुननेकी अभिलाषासे मोहित बना हुआ (जीव-जीवः) जीव (गरूवे चराचरे हिंसइ-अनेक रूपान् चराचरान् हिनस्ति) जाति आदिके भेदले अनेकविध चर अचर प्राणियोंकी हिंसा करता है। तथा कितनेक (ते-तान् ) उन जीवोंको (चित्तेहि-चित्र) अनेकविध उपायों द्वारा (परितावेइ-परितापयति) सर्वथा दुःखित करता है तथा कितनेक जीवोंको (पीलेइ-पीडयति) पीडा देता है।
भावार्थ-मनोज्ञ शब्द सुननेके अनुरागसे जब जीव ओतप्रोत हो जाता है तब उसके सुने बिना उसको चैन नहीं मिलता है। वह अपने इस प्रयोजनको अनुचित उपायों द्वारा भी सफल करनेकी चेष्टामें लगा रहता है। अपना अभिलषित जैसे भी सधे वैसा ही उपायकी साधनामें
“ सहाणुगा" त्याहा __म-क्याथ-किलिडे-क्लिष्टः भनाइ शहने समपान अनुरागथी अपायका तथा अत्तट्टगुरु-आत्मार्थगुरु' भनोस ७४३५ प्रयोग गरी ४२१॥ योग्य आयामा प्रधान३ भानी राणे छे. मने मे०४ ४।२0 ४ बाले-बालः अज्ञानी हितमा मतिना विवेथी विज छ, सेवा सदाणुगासाणुगए-शब्दानुगा शानुगतः गाना गीत मा ३५ चना यथात पानी मधुर वनीने सालजवानी मनिसाथी भाडित मने जीव-जीव ७१ णेगरूवे चराचरे हिंसइअनेकरूपान् चराचरान् हिनस्ति ति महिना मेथी मन:विध य२-मयर पायानी हिंसा ४२ छ. तथा सा ते-तान् मेवा खाने चिहि-चित्रै मन विष पाय द्वारा सही परितावेइ-परितापयति सहा हुमित ४२ छे. તથા કેટલાક જીવને પીડા આપે છે.
ભાવાર્થ–મજ્ઞ શબ્દ સાંભળવાના અનુરાગથી જ્યારે જીવ એમાં ઓતપ્રોત બની જાય છે ત્યારે એને સાંભળ્યા સિવાય તેને કયાંય ચેન પડતું નથી. -એ પિતાના આ પ્રયજનને અનુચિત્ત ઉપાયો દ્વારા પણ સફળ કરવાની ચેષ્ટામાં * ** 1 રહે છે. પિતાનું ઈછેલ કાર્ય જે રીતે સફળ બને તેવા ઉપાયની