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प्रियदर्शिनी टीका म २२ नेमिनाथचरितनिरूपणम् गन्ध , स सजाता येपा तॉस्तथा, सभावत एव मुरभिगन्तीन, मृदुस्कृचितान् कोमलकुटिलान केशान पश्चमुटिभि कृत्वात्वरित यथास्यात्तथा लुश्चति ॥२४॥
दीवाग्रहणानन्तर भगवान मन पर्ययज्ञान प्राप्त गन । नतो यदभूत्तदन्यनेमूलम्- वासुदेवो'यं ण भणंड लजकेस जिइंदिय ।
इख्यि मणोरह तुरिय, पावसुंत्त दंमीसरा ॥२५॥ छाया--वामुढेवश्च त भगति, लप्तकेश जितेन्द्रियम् ।
ईप्सितमनोरथ स्वस्ति, मामहि व दमीश्वर । ॥२५|| टीका--'चासुदेवो य' इत्यादि।
ततो लप्लकेश-लुश्चितकेश जितेन्द्रिय वशीकृतेन्द्रियसमूह त भगवन्त मरिष्टनेमि वासुदेव =श्रीकृष्णो भणति-कथयति, चकारस्योपक्षणत्वाद् बलभद्र समुद्रविजयादयोऽपि भणन्ति-'हे दमीश्वर ! हे समिश्रेष्ठ ! त्वम् ईप्सितम नोरय-स्वाभिलपितमोक्षरूप मनोरथ त्वरित शीघ्र प्रामुहि ॥२५॥ वानने (मुगधगविग-मुगन्धगन्धितान) स्वभावतः सुगन्धित तथा (म.य कुचिरा-मृदुककुञ्चितान्) कोमल कुटिल (केसे-केशान) केगों का (पचमुट्ठीहिं पचमुष्टिमि.) पचमुष्टियों से (मयमेव लुचड-स्वय ग्व लुश्चति) स्वय लोच किया ॥४॥
' दीक्षा ग्रहण करते ही भगवान् को मन पर्यवज्ञान. हुआ बाद __ क्या हुवा सो, कहते है-'वामुदेवो' इत्यादि। . - 1 अन्वयार्थ (लुत्तकेस जिडदिय ण वासुदेवो भणइ-लुप्तकेश जिते. न्द्रिय त वासुदेवो भणति). इसके बाद लश्चित केश वाले नया जिते. न्द्रिय उन अरिष्टनेमि से वासुदेवने कहा (दमीसरा-दमीश्वर) हे "सयमश्रेष्ठ (त्वम्) तुम (मुग्यि-त्वरितम्) शीघ्र (इन्छिय मणोरह पावसुत्त'सो-स. मे भिनाय भगवन मुगधगपिए-सुगन्धगन्धितान् स्वल पत सुरक्षित नया मउयकुचिए-मृद्ककुञ्चितान अभ. पुलिस थानु पचमुद्विहि-पचमुष्टिभि ५यभुटियाथो सयमेव लुचइ-स्वय लुञ्चति बायन यु ॥२४॥
દીક્ષા ગ્રહણ કરતાજ ભગવાનને મન પર્યાયજ્ઞ ન થયું એ પછી શુ બન્યુ त छ --"वासदेवो" त्याहि
। अन्वयार्थ लुत्तकेम जिइदिय ण वासुदेश भणइ लुप्तकेश जितेन्द्रिय त वासुदेवो भणति ॥ पछी बुथित शाणा तथा न्द्रिय थे मरिनेमार पासव उधु, दमीसरा-दमीश्वर ७ सयमश्रेष्ट । तमे तुरिय-त्वरितम् शी इन्त्रि