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________________ ६१. उत्तराध्ययनस्त्रे छाया -- कुशीर लिङ्गम् इह धारयिला, ऋषिवन जोहा असयतः संयत लपन्, विनिधातमागच्छति स चिरमपि ॥ ४३॥ टीका- 'कुसीलटिंग' इत्यादि । ॥ } यो द्रव्यमुनिरजन्मनि कुशीलरि=पास्थादिवेष धारयिला तथाजीविकायै= उदरभरणार्थम् ऋषिमुनिरजोहरणादिक साधु चिह्न, बृदयित्वा = परिधाय अतएर - असयत =भारसयमरहित सन् आत्मान सयत=साधु ल्पन्=शब्दयन् 'अह सयतोऽस्मि' इतिवदन स द्रव्यमुनिः मिनि घात =भवभ्रमणरूपा विविधा पीडा चिरमरिमभूतगलमपि आगच्छति = प्राप्नोति । 'सजयळप्पा माने' इत्यत्र 'सजय' इतिलुप्तद्वितीयान्तम् || ||४३|| " 'कुसीलिग' इत्यादि । अन्वयार्थ - - जो द्रव्यमुनि (कुसीललिंग धारडत्ता - डर कुशी रुलिङ्ग धारयित्वा ) इस जन्म में पार्श्वस्थ आदि के वेष को धारण कर के तथा ( जीत्रिय इसिज्झय वृहत्ता - जीविकायै ऋषि वज बृहत् उदर- पोषण के निमित्तऋषिवज को सदोरकमुपवत्रिका तथा रजोहरण आदि साधुचि को लेकर के (असयए - अस्यतः) सयम से रहित होता हुआ भी (अप्पाण सजय लप्पमाणे - आत्मान सयत लप) अपने आपको सयमी प्रकट करता है (से- स ) वह (विनिघात चिरपि आगच्छइविनिघात चिरमपि आगच्छति) भवभ्रमणरूप विविध पीडाको बहुत कालतक प्राप्त करता रहता है। भावार्थ-भाव सयम से रहित होने पर भी जो द्रव्यलिङ्गी अपने आपको भाव समीरूप से प्रस्ट करता है एव पार्श्वस्थ आदि के लिङ्ग "कुसीललिग - धत्याहि । मन्वयार्थ — ने द्रव्य भुनि कृसीललिंग धारइत्ता-इह कुशीललिङ्ग धारयित्वा २मा नन्भभा पार्श्वस्थ महिना वेशने धारण रीने तथा जीत्रिय इसिज्झय वूहइत्ताजीवीकायै ऋपि वृहयित्वा ७४२ घोषणु निमित्ते ऋषि वने-सहोर भु पश्चिम तथा रोडर मोहि साधु थिन्डने सधने असयए- असयत सयभक्षी रहित होवा छता अप्पाण सजय लप्पमाणे- आत्मान सयत लपत् पोते पोतानी भतने सयभी तरी! भोजयाने छे से सः ते विणिधाय पिरपि आगच्छ - विनिघात चिरमपि आगच्छति लवश्रमायु३प विविध चीडाने धाया आज सुधी लागतो रहे छे ભાવાભાવ સયમથી રહિત હોવા છતા પણ જે દ્રવ્યલિગી પોતેાતાને ભાવ સયમી રૂપથી પ્રગટ કરે છે અને પાશ્વસ્થ અઢિના લિંગને લઈને પણ જે '
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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