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________________ प्रिटो २० महानिस्वपनिरूपणम् यह हेतुमाह - ६१६ मूलम्— विंस तु पीय जेह कालंकूड, हणाइ सत्थ ह कुग्गहीय । सो विम्मो विसवण्णो हाड वेयाल इवाविवण्णो ॥१॥ यातु पीत यथा कालकूट, या कटहीतम् । पोर धर्मो विपयोपपन्नहन्ति ताल वापन्न ||४३|| टीम- रिस तु' इत्यादि । यथा तु कालकूट विष=कालकुटारव्य विष पीतसर पानकर्तार हन्ति, कुटनितया गृहोत मम्र धारणतर हन्ति, उरन्यथा अवि पन्न = मन्त्रादिभिररीना नेता सारक इन्ति तथैवादि को लेकर भी जो ऋपिचि को सिर्फ पेट भरने के ग्याल से । धारण करता है वह असमी ही है और वह बहुत कालतक भी इस मवश्रमणरूप पीडा से छुटकारा नही पा सकता है ||४३|| इसमे हेतु कहते है- 'विसतु' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( जहा पीय कालड विम हणाउ-यथा पीत गलकट जिप हन्ति) जिस प्रकार पिया हुआ कालकट चिप पीने व ले के प्राणों क अपहारक होता है अथवा (जहा- यथा) जैसे (कुग्गहीय सत्य हणारकुगृहीत शस्त्र हन्ति) विपरीतपने से ग्रहण किया हुआ शस्त्र धारण रनेवाले का विनाश कर देता है अथवा (डब) जसे (अपिवण्णो वेग्राल हाइ-यविपन्न. वेताल रन्ति) मन्त्रादिको द्वारा वन में नी किया गया वेताल वशमे करने वाले साधक का भ्वस कर देता है उसी तरह (चिमण्णो विषयोपपन्न) शब्दादिविपयरूप मोगो की लोलुपता ઋષિચિન્હાને ફકત પેટ ભરવાના ખ્યાથી ધાણુ કરે છે તે અસયી છે અને તે ઘણાં કાળ સુધ પણ આ ભત્ર ભ્રમણુરૂપ પીડાથી છુટકારો મેળવી રાકતે નવી । ૪ ।। इ भाभा हेतु उडे -“विसतु" धत्यादि । मन्वयार्थ - जहा पीथ काल्डरसाठ यथा पीत काट दिए हति જેવી તે કાળફૂટ વિષ પીનારા પ્રાણીના પ્રાણાના નારા કરનાર અને ઇં અથ ! "नहा-यथा वेभ कुम्गहीय सत्य हणार-कुगृहीत शस्त्र हन्ति उधी रीते धन्य કરવામા આવેલ શસ્ત્ર ધારણ કરત ને વિનાશ કરી દે છે અથવા જેમ નિર્દે वेयाल हाइ-त्रिपन्न वेताल हन्ति वशमान उसामा मावेस येतान
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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