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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ १९ मृगापुनचरितवणनम् परिणामः सुन्दरःशोभनो न भवति । एवमेव भुक्ताना भोगाना - मनोज्ञशब्दा दीना परिणामः सुन्दरो न भवति ||१७|| एव भोगादीनामसारतामुक्त्वा दृष्टान्तेन स्वाशय प्रकाशयन्नाह-मूलम् -- अडाणं जों महत तु, अपाहेओ पवर्जई । गच्छतो सो दुही होईं, छुहात हाहि पीडिओ ||१८|| छाया -- अ वान यो महान्त तु, अपाथेय पयते । गच्छन स दुःखी भवति, पुत्तृष्णाभ्या पीडितः ||१८|| टीका--'अद्वाणं' इत्यादि -- ४८३ यस्तु पुरुष अनायेयः =नाथेयवर्जितः शम्बलरहितः सन् महान्तम-वान= दीमार्ग प्रपद्यते = गछति । तन दीर्घे मार्गे गच्छन् स क्षुत्तृष्णाभ्या=सुद्= जुभुक्षा, उष्णा-रिपासा ताभ्या पीडितः यथितः सन् दुखी भवति ॥ १८ ॥ 'जहा' इत्यादि । अन्वयार्थ - - ( जहा किंपागफलाणं यथा किम्पाकफलाना ) जिस प्रकार भुक्त किंपाक फलोंग (परिणामो न सुदरो- परिणामो न सुन्दरः) - परिणाम सुन्दर नहीं होता है किन्तु प्राण हारी ही होता है (ग्व भुत्ता भोगाण परिणामो न सुदरो-एव भुक्ताना भोगाना परिणामो न सुन्दरः) उसी प्रकार भुक्त भोगोंका परिणाम भी नरक निगोदादिक दुखों का देनेवाला होने से सुन्दर नहीं होता है ॥ १७ ॥ भोगादिकों की असारता कहकर अब दृष्टान्त से अपना आशय प्रकट करते है -- 'अद्वाण' इत्यादि । अन्वयार्थ - (जो यः) जो पुरुष (अपाहेओ-अपाथेय) विना कलेचा -भाता के (महत अद्वाण पवज्जइ-महान्त अध्वान - प्रपद्यते) बहुत लम्बे अन्वयार्थ - जहा किंपागफलाण-यथा किपाकफलाना के मारे मेरी इणेोनु परिणामो न सुदरो- परिणामो न सुन्दर परिलाभ सुहर नथी होतु, परतु प्रायुना नाथ ४२नार होय छे एव भुत्ताणभोगाण परिणामो न सुदरो- एव भुक्ताना भोगाना परिणामों न सुन्दरः मे प्रभा लोगवेता लोयोन परिणाम सुन નિગેાદ આદિ ક્રુ ખાતે દેવાવાળુ હેવાથી સુદર નથી હેતુ ॥ ૧૭ ।। લેાગ આદિકની અસારતાને કહીને હવે દૃષ્ટાતથી પેાતાના આશયને પ્રગટ रे -- "अद्धाण" त्याहि । अन्वयार्थ --जो-यो ? ३ष पोतानी साथै अपादेओ - अपायः लातु सीवा नगर महत श्रद्धाण पवज्ज:- महान्त अश्वान प्रपद्यते धा तामा भागे नवा भाटे
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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