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________________ - - - ૪૮૨ उत्तगध्ययनम् पिनाश, राधा-ग देह र रगतमा भाग मे मम मनुआर्य गन्तव्यम् । 'मेग' इत्यादिना इष्टपियोग उत्त:, 'भाग' स्पन अमर स्वच पोकम् ॥१६॥ भोगपरिणाममा:-- मूलम्-जेहा किपागफेलाणं, परिनामो ने मुंदंरो। एव भुत्तीण भोगाणं, परिणामो ने सुटेरो ॥१७॥ छायायया किम्पाकफलाना, परिणामी न गुन्दरः । एर मुक्ताना मोगाना, परिणामो न सुन्दरः ॥१७॥ टीका-'जदा' इत्यादि। ययाम्पेन प्रसारण किम्पासालाना-शिम्पायनामकापातमधुर विषफगना फीर भी-'पित्त' इत्यादि। अन्वयार्थ (मित यत्यु हिरण च पुत्तदार च यघवे इम देह ण घहत्ता-क्षेत्र वास्तु दिरण्य च पुत्रदार च यान्धवान् उम देर बलु त्यत्तवा) क्षेत्र, वास्तु-गृह-महल आदि, हिरण्य-मुवर्ण, पुत्र, दारा यान्धव, इन सब को तथा इस शरीर यो छोडकर (अवसस्स मे गन्तन्वम्अवशस्य मे गन्तव्यम्) फर्माधीन घने हुए मुझे यहा से अवश्य जानाह रहना नहीं है। "जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु." यह सिद्धान्त है । अत है, मात तात ! तुम क्यों मुझे इस ससार में फंसाने की चेष्टा परते हो । मेरा उद्धार जैसे भी हो सके ऐसा प्रयत्न करो ॥१६॥ अब दृष्टान्त के साथ भोगों के परिणाम को करते है-- छता प-"खित" त्या ! सन्पयार्थ:--खित पत्थु हिरण च पुतदार च बन्धवे इम देह ण चइत्ताक्षेत्र वास्तु हिरण्य च पुनदार च बान्धवान इम देह खलु त्यत्तवा AaRig ગૃહ, મહેલ આદિ હિ૨ણય રસવ, પત્ર, દારા, બાધેવ, આ સઘળ ને તથા આ शरीरन छान अवसस्स मे गन्तव्यम-अवशस्य मे गन्तव्यम मांधीनगन सवार माथी अनार छु, महनार नथी जातस्य हि नबो मत्यः "- या छ તેનું ચોકકસ મૃત્યુ છે આ સિદ્ધાન્ત છે માટે હે માતા પિતા 'તમે મને શા માટે આ સ સારમાં ફસાવવાની ચેષ્ટા કરે છે મારો ઉદ્ધાર જે રીતે થઈ શકે, તેવા प्रयत्न ४३ ॥ १ ॥ वे यातनी सालाना परिणामने ४३ छ-"जहा" त्य।
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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