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________________ દૂ उत्तराध्ययनम् समर्था, यहा - निद्रानैः=काणै:-मिः मध्यन्त क्षमापुता 'जिनशासन मंत्रा श्रयणीयमित्येव रूपा गत्याना मया भाषिता=क्ता इमा रामकृत्य हव. पतरन् = समारसागर तोर्णरन्त एके भवर केचित् महापुरुष समयपि तरन्ति ससारसागरम् । तथा-भनागना. =मारिनोऽपि सगारमागर तरिष्यन्ति ||१३| " यतामत. मूलम् - कॅह धीरे अहेऊंहि अत्ताणं परियाँबसे । - सर्व्वसगविणिम्मुको, सिंद्धे भवंड नीरं त्ति वेमि ५१|| इति समाज्न समत्त ||१८|| छाया - थ घीर अहेतुभिः आत्मान पर्याासयेत् । 'सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः सिद्धो भाति नीरजा इति ब्रवीमि ॥५४॥ टीका- 'कर' इत्यादि । " धीरः=मज्ञावान् अहेतुभि'=मिथ्यात्वकारणभूते. क्रियादिवादिकाल्पितकुहेशोपन करने मे अत्यंत समर्थ अथवा समीचीन हेतुओं से युक्त " जिन शासन ही आश्रयणीय है" ऐमी यह (सच्चाई - सत्यावाग् ) सत्यवाणी ही ( मे मासिया मया भाषिता ) मैं ने कही है। सो इस वाणी को स्वीकार कर के ही बहुत से माणी (अतरिंसु - अतरन) पहिले इस ससारसागर से पार हुए हैं (एगे-एके) कितनेक अभी भी (तरति तरन्ति ) पार हो रहे हैं और (अणागया- अनागता . ) कितनेक भाग्य शाली महापुरुष (तरिस्सति तरिष्यन्ति ) भविष्य मे पार होगे || ५६ ॥ अतः - 'कह धीरे' इत्यादि । अन्वयार्थ — (धीरे-धीरः) जो प्रज्ञाशाली आत्मा है वह (अहेऊ કરવામાં ઘણા જ સમય અથવા મિચીન હેતુઓથી યુક્ત ८८ જીન શાસન જ આશ્રય ४२वा योग्य छे ” ओवी आ सच्चावाई - सत्यावाय् सत्य, वाथी ४ मे भासिया - मया માવિતા એ કહેલ છે તે આ વાણીના સ્વીકાર કરીને જ, પહેલા આ સસાર सागरथी धधु। आशुीओ। अतरिंसु - अतरन् पार था छ एगे - एके डेंटला माने पतरति - तरन्ति भार थ रह्या छे, मने अणागया- अनाताः उदसा लाग्य शाणी पु३ष तरिस्सति - तरिष्यन्ति लविष्यमा पार थशे ॥ ५३ ॥ L स्मत - " कह धीरे" इत्यादि अन्वयार्थ ----धीरे - धीर ने प्रज्ञाशाणी आत्मा छे ते अहे ऊहिं - श्रहेतुभि
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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