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________________ प्रिय-शिनी टीका अ १८ महाकथा સ तुमि आत्मानम् कर पर्यावासयेत्-आत्मानमहेत्वादिभारित कर्यान्न पिकुमादित्य | कुठेसवामितस्वात्मन किं फल्म ? उत्पान 'सच्चसग' इत्यादि कुवामितात्मा सर्वनिर्मुक्त=सन्तिकर्मणा सन्तिष्टा भवन्ति जन्तन एभिरिति सहा व्यती धनाय भावनो मियात्वरूपा एत एन किया दिः सर्वे च ते सहा सर्वसङ्गास्तेभ्यो विनिर्मुक्तो रहित सन् नीरजा कर्मरजोरहिता भूत्वा मिट्टी भवति । जनेन हेतुपरिहारम्य कर्मादिम राहित्य पूवक सिद्धन्यरूप फरमुक्तम् । 'इति नरीमि' अभ्यार्थ पूर्ववदम्य | ५४॥ इतिश्री- विश्वविग्यात - जगद्वलभ-मसिद्धवाचकपञ्चदशभाषा कलित-ललितपालापक- प्रविशुद्धगयरधनैकग्रन्थ निर्माण - विमानमर्दक- जाउनपति - कोल्हापुरराजमदत्त - 'जैनगासाचार्य' पदभूषित - कोल्हा पुरराजगु पात्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिनार - पृथ्वीपासीला प्रतिविर चितायामुत्तरा ययनम्रत्रस्य प्रियदर्शि न्यारयाया व्याख्याया सतीया यमाष्टादशम् ययन सम्पूर्णम् । = अहेतुमि.) मिध्यात्व के कारणभृत कियावादी आदि द्वारा कल्पित कुहेतुओं द्वारा ( अत्ताण वह परियावसे- आत्मान कर पर्यावासयेत् ) अपने आपको कैसे सावित कर सकता है किन्तु नहीं । इसी लिये ऐसी आत्मा (सगविणिम्मुको सर्वसगविनिर्मुक्त ) सर्वसग से न के अपेक्षा नाविक परिग्रह से तथा भाव की आपेक्षा मिथ्यात्वरूप न क्रियावाद आदिको से-रहित होता हुआ (नीर- नीरजा) कर्मरज મિથ્યાત્વના કારણુશ્રુત ક્રિયાવાદી આદી દ્ર ! કલ્પિત કુહેતુઓથી વશાળ રૃઢ परियार से- आत्मान व पर्यावासयेत् पोते पोताने ४६ ते लावित उरी है ?-दी नही आजर आयी । सगविजिम्मुको सर्वसगविनिर्मुक्त સર્વીસ ગચી દ્ર યની અપેક્ષા ધનાદિકના પહથી તથા ભાવની આપેક્ષા મિ त्व३ मा डिनावड आदि।थी रहोत मनीने नीरए-नीरजा २४थी रहीत
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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