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________________ प्रियदशिनी टीका प. १७ पापश्रमणस्वरूपम् अमृतमित्र पूजित' चतुर्विधसहयैः प्रशसित' सन् उम लोक तथा पर लोक च भाराधयति । 'उति ब्रवीमि' इत्यस्यार्थः पूर्ववद्रोय ॥२१॥ इतिश्री-विश्वविख्यात-जगवलम-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललित कलापालापक-प्रविशुद्धगप्रपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-शाहूउत्रपति-कोल्हापुर-राजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य पदभूपित-कोल्हा पुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर--पूज्यश्री पासीलाल्पतिविरचितायामुत्तराव्ययनमत्रस्य प्रियदर्शिन्या टीकाया पापत्रमणीय नाम सप्तदशम ययन समाप्तम् । वह मुनियों के बीच प्रशस्त-व्रतधारी माना जाता है। तथा वह (अयसिलो-अस्मिन् लोके) इमलोकमें (अमय व-अमृतमिव) अमृत के समान (पृडरा-पूजितः) आदरणीय होता है। चतुर्विध सघके द्वार। आहरणीय होकर वह (इण लोग तहा परलोग आराइए-इम लोक तथा परलोक आराधयति) अपने इसलोक को एव परलोकको भी सफल बना लेता है। (त्तिवेमि-इति ब्रवीमि) ऐसा मैं कहता है अर्थात्सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते कह रहे है कि जैसा मेने श्रीवीरप्रभु से सुना है मो तुम से कहा है। अपनीतर्फ से कुछ नहीं कहाहै ॥२१॥ पापत्रमणीय नामके इस सत्रह वें अध्ययन का हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ ॥ १७ ॥ तथा ते अयसिठोए-अस्मिन्लोके पासोमा अमय व-अमृतमिव अभृतनी भाई पूटए-पूजित' मा६२९य थाय छ यतुविधस १२५ मा६२ पाभीन ते इण लोग तहा पर लोग आराहए-इम लोक तथा पर लोक आरापयति पाताना माल भने ५४ने ५ सण मनापी बे, ति बेमि-इति ब्रवीमि ये ४४ સુધર્માસ્વામી જબુસ્વામીને કહે છે કે જેવુ કે મહાવીર પ્રભુ પાસેથી સાભ ળેલ છે તે તમને કહ્યું છે મારા પિતાના તરફથી કોઈ પણ કહેલ નથી શ્રી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના પાપશ્રમણીય નામના સત્તરમા અધ્યયનને ગુજરાતી ભાષા અનુવાદ સ પૂર્ણ ૧૭
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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