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________________ - - - उत्तराध्ययनमरे वगत्येव तुन्छत्वात् , परत्र परस्मिन् लोकेऽपि नै भाति-वर्गमोलादिमुखभागी न भरति श्रुतचारिरिराधमत्वात् । निरर्यक्रमेर तन्नन्म भवतीति भावः ॥२०॥ अथपूर्वोक्त दोप परिहार फलमाह-- मूलम्-जे' वजएं एए संवा उ दोसे', से सुबए हो. मुगीण मज्झे। असि लोअमय पूडएँ,आरीडए लोगमिण तहा पर त्ति वेमि ॥२१॥ छाया-~-यो वर्जयति एतार सदा तु दोपान् , स मुनतो भाति मुनीना मध्ये । अस्मिल्लोके अमृतमित्र पूजितः, आराधयति लोकमिम तथा पर इति नवोमि ॥२१॥ टीका-'जे धजग' इत्यादि । यः साधुरेतान् पूर्वोक्तान ज्ञानातिचारादिन दोपान सदा तु सदैव वर्जयति परिहगति, स मुनीना म ये सुनतः मशस्तरतधारी भवति । तथा सः अस्मिल्लोके इसलोक मे चतुर्विधसघ-द्वारा अनादरणीय होता है कारण कि तृण के समान वह सघकी दृष्टिसे बिलकुल गिर जाता है। तथा श्रुतचारित्रका विराधक होने से परलोक में वह स्वर्गमोक्ष आदिके सुखों का भी अधि कारी नही रहता है। अतः उसका जन्म निरर्थक ही जाता है ॥२०॥ अब उक्त दोषांके परिहारका फल कहते है-'जे बजरा' इत्यादि । अन्वयार्थ (जे-यः) जो साधु (गतान् दोषान्) इन ज्ञानातिचारादिक-ज्ञानाचार आदि सबधी दोपोंको (सया उ वजए-सदा तु वर्जयति) मदैव दूर कर देता है-उनका सदा के लिये परित्याग कर देता हैं (से मुणीण मज्झे सुब्वा होइ-सः मुनीना मध्ये सुव्रतो भवति) આલેકમ ચતુર્વિધસ ઘ દ્વારા અનાદરણીય બને છે કારણ કે તણખલાની માફક તે સઘની દૃષ્ટિથી બિલકુલ નીચે પડી જાય છે તથા કૃતચારિત્રના વિરાધક હોવાથી પરલેકમા તે મા આદિના સુખના પણ અધિકારી રહેતા નથી આથી એને જન્મ નિરર્થક જ જાય છે પર 6 xn पाना परिहारनु ५॥ वाभा मा छ –'जे वज्जई' त्याls अन्या-जे-य रे साधु एए दोसे-एतान् दोषान् मापा सानातिया -ज्ञानाथार समधी दोषाने सयाउ बजए-सदातु चयति सव २ ४री छ-तेनी सहाने भाटे परित्याग ४ छ, से मुणीणमज्झे सुब्बए होइ-स मुनीना मध्ये सुव्रतो भवति ते भुनिमानी क्यमा प्रशस्त प्रतधारी भनाय छ
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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