SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तगध्ययनसूत्रे चक्षुपिरुपदर्शनमवश्यभारि, परन्तु ब्रह्मचारी सीणा पूर्वोक्त स्पम् जास्मात्र सुर्विपयागत रागपूर्वक नाश्लोकयदितिमारः। उक्त च-असक रूपम चरयुगोयरमागय । रागदोसे उजे तत्य, ते ही परिवनए ॥१॥ इति । छाया--अशक्य रूपमद्रष्टु, चक्षुर्गोचरमागतम् ! रागद्वेपौ तु यो तत्र, तो उध. परिपर्जयेत् ॥१॥ इति । ॥ इति चतुर्थस्थानम् ॥ मूलम्-कूईय रुडय गीय हर्सिय थर्णिय दिय। चमचेरेरओ थीण, सोयर्गिझ विवजए ॥५॥ छाया--कृजित रुदित गीत, हसित स्तनित क्रन्दितम् । ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणा, श्रोतग्राह्य विपर्जयेत् ॥५॥ परित्याग करे । पद्यपि जनतक नत्रो का सद्भाव है-अर्थात् उनमें अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति है तबतक उनके द्वारा पदार्थों कारूप दर्शन अवश्य होता ही रहेगा तथा साम्हने जो चीज आवेगी वह देखी ही जावेगी-फिर भी जो ब्रह्मचारी साधु है ये जव इस प्रकार का रूप अकस्मात् अपनी दृष्टि का विषय बन जाता है तब उसको रागपूर्वक नही देखते हैं। रागपूर्वक अवलोकन करने मे पापवध है। इसी बात को लेकर उसके देखने का परित्याग करनेका कहा गया है। "असक स्वमद्द, चक्खुगोयरमागय । रागहोसे उजे तत्य, ते धुतो परिवजए॥१॥” इसी तरह प्रत्येक इन्द्रियो के विषय मे इस नीति को लगा लेना चाहिये । यह चतुर्थस्थान है ॥४॥ છે અર્થાતુ-પિતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાની શક્તિ છે ત્યા સુધી તેના દ્વારા પદાર્થોનું રૂપે દર્શન જરૂરથી થતુ જ રહેવાનું તથા સામે જે ચીજ આવશે તે જોવાઈ જ જશે છતા પણ જે બ્રહ્મચારી સાધુ છે તે જ્યારે આ પ્રકારનુ રૂપ અકસ્માત પિતાની દૃષ્ટીનો વિષય બને ત્યારે તેને રાગપૂર્વક જેવા નથી રાગપૂર્વક અવલેકન કરવામા પાપનો બધ છે આ વાતને લઈને તેને જોવાને પરિત્યાગ બતાવવામા આવેલ છે "असक रूवमदट्ट चक्खुगोयरमागय । रागद्दोसे उ जे तत्थ ते हो परिवजए ॥१॥" આ પ્રમાણે પ્રત્યેક ઈન્દ્રિયના વિષયમાં આ નીતિને અનુસરવું જોઈએ જા
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy