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प्रियदर्शिनी टीका अ. १६ दशविधनामचर्यममाधिस्थाननिम्पणम् मूत्रम्-धम्मल मिय काले, जतत्थ पणिहाणवं ।
नोडमत तुं भुजेजा, वभचेररओ सया ॥८॥ छाया-धर्मय मित काले, नार्य प्रणिधानवान् ।
नातिमात्र तु भुञ्जीत, ब्रह्मचर्यरत सदा ॥८॥ टोका-'धम्मलद्ध' इत्यादि ।
प्रणि गनपान-प्रणिधान-चित्तसमापिम्नद्वान् , तया-ब्रह्मचर्यरतो भिक्षु' धर्मलयधर्मेण-मुनिकल्पानुसारेण लय-माप्त, न तु प्रतारणादिना, तथा मितम् -परिमितम्
"अद्धमसणस्स सध जणम्स ना दवस्म दो भाए।
वाउपरियारणहा, भाग ऊणय कुजा" ॥१॥ (पणीय भत्तपाण विप्प मयविवडण-प्रणीत भक्तपान क्षिप्र मदविव
नम) प्रणीत भक्तपान तथा जिससे शीघ्र कामोद्रेक बढे ऐसे भक्तपान का (नियमो नित्यशः) सर्वदा परिवजग-परिवर्जयेत्) त्याग करे
॥ यह सप्तम समाधिस्थान है ॥७॥ 'धम्लमद्' इत्यादि
अन्वयार्थ-(पणिहाणव-प्रणिधानवान् ) चित्त की समाधि मपन्न तया भचेररओ-ब्रह्मचर्य की रक्षा करने मे मदा सावधान सायु (पम्मलद्ध-धर्मलब्धम् ) मुनिफ्ल्प के अनुसार प्राप्त हुए तथा (मिय मितम् ) मर्यादायुक्त, जैसे
"अद्धमसणस्स सन्च, जणस्स कुना वस्स दो भाए।
वाउपवियारणट्टा, छभाग ऊणय कुज्जा" ॥१॥ पाण विप्प मयविवडण-भणीत भक्तपान क्षिप्र मदविवर्धनम् अgla मोरा पाए 141
नाथी या वासनामा ति याय पा २२४ पाना निच्चसो-नित्यशः स५६ परिवज्जए-परिवर्जयेत् त्या रे ॥७॥
'धम्मलद्ध' त्यादि।
मन्वयाथ:--पणिहाणव-प्रणि पानवान् शित्तनी समाधी सपन्न तथा वभ चेररओ-ब्रह्मचर्यरत प्रह्मययनी रक्षा ४२वामा सहा सह सावधान मनी रता साधु पम्मलद्ध-धर्मरव्यम् मुनिः८५ मनुसार प्रास थयेस मेय-मितम् महायुदत
"अद्धमसणस्स सन्च, ज्णस्स कुन्ना दरस्स दो भाए । वाउपविचारणहा छठभाग उपाय कुन्ना ॥ १ ॥"