________________
प्रियदशिनी टीका म. २३ श्रीपाश्चनायचरितनिरूपणम कथ वि यापता =निर्वापिताः अग्नयो यद्यप्यात्मस्वात्तवाप्यात्म-शरीरयारमें दोपचारात् गरीरस्वा उक्ताः । 'चिटइ' इत्यनार्पत्याद् रहुत्वे एकत्त्व मो.यम् ॥५०॥
गौतमः माहमूलम्-महामेहप्पेसूयाओ, गिज् वौरि जलंत्तम ।।
सिचाँमि सयंय ते उं, सित्ती नों" ये दह ति में' ॥५१॥ छाया-महामेप्रमूताद, गृहीत्वा गरि जलोत्तमम् ।
सिञ्चामि सतत तास्तु, सिक्ता नो च दहन्ति माम् ॥५१॥ टीका--'महामेहप्पम्याओ' इत्यादि--
हे भदन्त ! अह महामेघनमूतात्-महामेरसमुत्पन्ना=महतः पवाहात्, जलोत्तम शेपजलापेक्षया प्रधान वारि-जल गृहीत्वा आदाय तान् अग्नीन् सतत सिञ्चामि । इत्थ सिक्तास्तु ते अग्नयो मा नोच दहन्ति नैव भस्मसात् कुर्वन्ति ॥५१॥ के अन्तर्गत होकर जीवो को परितप्त करती रहती है। फिर यह तो कहिये कि (तुमे कह विज्झाविया-त्वया कथ विध्यापिता.) ओपने इस अग्नि को कैसे वुझाया है। यद्यपि अग्नि आत्मा के अन्तर्गत होती हैफिर भी यहां जो उसको शरीर के अन्तर्गत कही गयी है वह आत्मा और शरीर में अभेद उपचार से ही कहा गया है ॥५०॥
गौतम ने इस केशी के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया-'महामे हप्पसूयाओ' इत्यादि। _ अन्वयार्थ-हे भदन्त । (महामेटप्पमूयाओ-महामेदामसूतात्) मे महामेघ से मस्त तथा (जलुत्तम वारि गिज्म-जलोत्तमम् वारी गृहीत्वा) जलोत्तम ऐसे पानी को लेकर इस अग्नि पर (सयय सिंचामि-सतत सिञ्चामि) सनत प्रवेशान याने परितत ४il 3रे छ पछी मे तो पता है, तुमे कह विज्झा विया-त्वया कथ विध्यापिताः माथे मा मनिने री मुलच्या छ ? અગ્નિ આત્માની આ દરના ભાગમાં હોય છે તે પણ અહી જે તેને શરીરની અતિ ગત બતાવવામાં આવેલ છે તે આત્મા અને શરીરમાં અભેદ ઉપચારથી જ બતાવવામા આવેલ છે પણ
गौतमेशीना प्रश्न उत्तर २मा प्रभारी माल्या “महामेप्पहरयाओ" त्याह!
अन्वयार्थ-3 महन्त ! महामेहप्पसूयाओ-महामेघप्रसूतात् महामेधयी प्रसूत तथा जलुत्त म १ गिज्झ-जलोत्तम वारि गृहीत्वा मा उत्तम सा पान A