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________________ ७५५ प्रियदर्शिनी टीका अ० १३ चित्र-संभूत चरितवर्णनम् नम् टीका-'महत्यभूया' इत्यादि महार्थरूपा = अनन्तद्रव्यपर्यायात्मकतया पह्वथरूपा, तथा-वचनाल्पभूता स्वल्पाक्षरा, एतादृशी गाथा गीयते तीर्थकरगणधरादिभिरिति गाथा, मोक्षार्थाभिधायिनी सूनपद्धतिः, नरसङ्घमध्ये विपुलजनसमुदायमध्ये, अनुगीता-अनु= अनुलोम-श्रोतुरनुकूल गीता स्थपिरैः कथिता । या गाथा श्रुत्वा भिक्षवः साधव शीलगुणोपपेताः-शील चारित्र, गुणो ज्ञान ताभ्यामुपपेता=युक्ताः सन्तः, इहजैनशासने मोक्षार्थ यतन्ते यत्नपन्तो भान्ति । तामेन गाथा श्रुत्वाऽह अमणो जातोऽस्मि न तु दरिद्रत्वात् । जय भाषः-सर्वभोगोपभोगसपन्नः महर्दियुतोऽनेक इस प्रकार मुनिराजका कयन सुनकर चक्रवर्तीने कहा कि जय आपके पास मेरी जैसी विभूति थी तो फिर मुनि होने का क्या कारण हुआ? इसका उत्तर अब इस गावा द्वारा दिया जाता है-'महत्यरूवा' इत्यादि अन्वयार्थ (महत्यरूवा वयणप्पभूया-महार्थरूपो वचनाल्पभूता) अनन्त द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुको विपय करने वाली होनेसे विस्तृत अर्थवाली तथा स्वल्प अक्षर वाली ऐसी गाथा-सूत्रपद्धति (नरसघमज्झेनरसडमध्ये) स्थविरोने चिपुलजनसमुदायके वीचमे (अणुगाया-अनुगीता) गाई-(या सोच्चा-या श्रुत्वा) जिस गाथा को सुनकर (भिक्खुणोभिक्षय) भिक्षुजन (सीलगुणोववेया-शीलगुणोपपेताः) चारित्र एव ज्ञान गुणसे युक्त वनकर (इह) इस जैनशासनमें (जयते-यतन्ते) मोक्षप्राप्ति के लिये प्रयत्नशील बनते ह सो मै भी " तामेव गाथा श्रुत्वा" (समणोम्हि जाओ-श्रमणो जातोऽस्मि) उसी गाथा को सुनकर ससार शरीर एवं भोगोंसे विरक्त बनकर मुनि हो गया हू । दरिद्री होनेसे मुनि नहीं हुआ है। મુનિરાજનું આ પ્રકારનું કથન સાભળીને ચકવર્તીએ કહ્યું કે, જ્યારે આપની મારા જેવી વિભૂતિ હતી તે પછી મુનિ થવાનું શું કારણ બન્યું? मेना उत्तर मा गाथा द्वा! मायामा मावेस छ–“ महत्थरूवा "-त्या ! मन्वयार्थ-मह्त्यख्वा वयणप्पभूया-महार्थरूपा वचनाल्पभूता मानत द्रव्य પર્યાયાત્મક વસ્તુને વિષય કરનાર હોવાથી વિસ્તૃત અર્થવાળી એવી ગાથા सूत्र पति नरसघमज्जे-नरसघमध्ये स्थान विधुर र समुदायनी क्यमा अणुगाया-अनुगीता 5 या सोच्चा-या श्रुत्वा २ थान सामजान भिक्खुणोभिक्षव भिक्षुत सीलगुणोक्वेया-शीलगुणोपपेत यास्त्रि भने ज्ञानगुथी युत मनीन इह-इह मानन शासनमा ज्जयते-यतन्ते भाक्षप्राप्ति भाटे प्रयत्नशील मत छ त ५५ समणोम्हिजाओ-श्रमणो जातोस्मि से गायाने सामजाने સસાર, શરીર અને ગોથી વિરક્ત થઈને મુનિ બની ગયે છું પણ દરિદ્રી હેવાથી મુનિ થએલ નથી
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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