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________________ उत्तगप्पयनसूत्रे मोचन न लभते पुरोहितपुयत् । वित्त त्राणाय न भवतीत्येतापदेन नहि किंतु वित्ता भिकाज्ञाऽपि महतेऽनर्थाय भवतीत्याद-' दीवप्पणदेव ' इत्यादि । दीपप्रणष्टः-प्रणष्टदीपः आपत्वाद् विशेषणस्य परप्रयोग.। विगतप्रकाशदीप इव अनन्तमोहः अनन्तः पर्यवसानहित, मोह' दर्शनादिमोहनीयकर्मोदयो यस्य स तथा, नैयायिक-निश्चित आयो न्यायो मोक्ष, स प्रयोजनमस्य नयायिकः सम्यग दर्शनादिको मोक्षमार्गस्त दृष्ट्वा = लध्यापि, अष्टेवन भाति । 'अदमेव' अस्य च्छाया अदृष्टेवर, इत्यापैत्वात् । ___अय भाव यथा गिरिकन्दरान्तर्गत प्रमादात प्रणष्टदीपः पूर्वदृष्टरस्तुभोग के समय में कर्मवन्ध से छुडानेरूप रक्षा को (न लभे-न लभते) पुरोहित पुत्र की तरह प्राप्त नहीं करता है । अर्थात वित्त पापकर्म के फल को भोगने से नहीं रोक सकता है। धन की अमिलोपा तक भी इस जीव को अनेक अनेक अनयों का कारण बनती है। इस बात को प्रदर्शित करने के लिये मन्त्रकार करते है (दीवप्पगडेव-दीपप्रणष्ट इव) कि जैसे दीपक के घुझ जाने पर देनी हुई वस्तु अदृष्ट जैसी हो जाती है उसी प्रकार जिस जीव के (अणतमोहे-अनतमोह ) दर्शनमोहनीय कर्म अन्तरहित है-दर्शनमोहनीय कर्म जिस जीव के विद्यमान हैऐसा जीव (णेयाउय दटूटु-नैयायिक दृष्ट्वा) सम्यग्दर्शनादिक मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करके भी (अदमेव-अप्दैवच)नही प्राप्त करने वाला जैसा ही हो जाता है। इसका साराश इस प्रकार है-जैसे गिरिकन्दरा के अन्तर्गत कोई प्राणी कि जो पहिले उसमे जलते हुए दीपक को लेकर प्रविष्ट टुआ है, तथा उसकी महायता से जिसने वहा की वस्तुओं ३० सपाना समय गयी छ।१५। ३५ शान न लभे-न लभते पुरे। હિત પુત્રની માફક પ્રાપ્ત કરતું નથી અથ-ધન પાપકર્મના ફળને ભેગવ વામાથી છોડાવી શકતુ નથી ધનની અભિલાષા આ જીવ માટે અનેક અનર્થોનું १२५५ मन छ पातने प्रदर्शित ४२वा माटे सूत्रधार ४ छ, दिवप्पणद्वेनदीपप्रणप्ट इन महीना भुआ पाथी द्रव्य-नयेसी तु मद्रव्य वी मनी जय मेरी शते २ ने अणतमोहे-अनत मोह न मानीय ४ मत २हित छ-शन भानीय भ वना विद्यमान छ-अव ७५ णेयाउय ठुनैवायिक दृष्ट्वा सम्मान विशेष भुतिना भाजनमा ४२५छता ५९ अट्ठमेवઅવ પ્રાપ્ત ન કર્યા જે જ બની જાય છે અને સારાશ આ પ્રકાર છેજેમ કઈ અધારા ગુફાની અંદર કોઈ પ્રાણી હાથમાં સળગતો દિ લઈને પ્રવેશ કરે અને એ દિપકના પ્રકાશની સહાયતાથી તેણે ત્યાની સર્વ વસ્તુઓનું નિરીક્ષણ
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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