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पीयूषयपिणी-टीका स ५७जलघरादियिपये भगवद्गीतमयो सपाद ६२९ तेसिं णं अत्थेगडयाणं सुभेण परिणामेणं पसत्थेहि अज्झवसाणेहिं लेस्साहि विसुज्झमाणीहि तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-वूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाण सपिण-पुजाई-सरणे समुप्पज्जइ ॥ सू० ५७॥
___ मूलम्-तए णं समुप्पपणजाइसरणा समाणा सयमेव पसाणेहि लेस्साहि विमुज्झमाणीहिं ' तेपा खलु अस्ति एकेषा शुमेन परिणामेन प्रशस्तैरघ्यवसानैर्लेश्याभिर्विशुद्धयमानामि , तदावरणिजाण , कम्माण खओवसमेण' तदावरणीयाना कर्मणा क्षयोपशमेन, अतएव 'ईहा-चूह-मग्गण-गवेसण करेमाणाण' ईहा-व्यूह-मार्गण-गवेपण कुर्वताम् , एपा पदाना व्यारया अवोत्तरार्धे एकत्रिंशत्तमसूत्रे गता। 'सण्णिपुन्चनाईसरणे' सजिपूर्वजातिस्मरण=पूर्वसनिमवस्मरण, 'समुप्पना' समुत्पद्यते ॥ सू० ५७॥
टीका-'तए ण' इत्यादि । 'तए ण समुप्पण्णजाइसरणा समाणा' __ उनमें कितनेक जीव, शुभ परिणामों से, प्रशस्त अध्यवसायों से, (विमुज्झमा
णीहिं लेस्साहि) विशुद्ध लेश्याओं-लेश्या की विशुद्धि से, तथा-(तयावरणिज्जाण क्म्माण खओवसमेण) तदावरगोय-ज्ञानावरणीय एव वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से (ईहा-चूहमग्गण-गवेसण करेमाणाण) ईहा, व्यूह, मार्गण एव गवेषण करते हैं, करते करते, (सम्णि-पुव्व-जाई-सरणे समुप्पनइ) सजिच अवस्था के पूर्वभवों की स्मृति-नाति__ स्मरण ज्ञान-पाते हैं । (ईहा) आदि पदों की व्याख्या यहीं उत्तरार्ध के एकतीसवे सूत्र
में देखें ॥ सू ५७ ॥
पसत्थेहिं अज्झनसाणेहिं) तमासा याने १२ शुल परियामाथी, प्रशस्त मयसायाथी (विमुज्झमाणीहिं लेस्साहि) विशुद्ध वेश्यामा-श्यामानी पवित्र auथी, तथा (तयावरणिजाण कम्माण सओवसमेणं) तापीय-ज्ञानावरणीय' तेभर पीयन्तिय उभंना क्षयोपशमथी, (ईहा-वृह-मगण-गवेसण करेमाणाण) Ul, व्यूड, भारतमा विषाणु ४२ता ४२॥ (सणिपुव्वजाईसरणे । समुप्पज्जइ) सशिव अवस्थामा पूर्व भवानी भृिति-तिस्भरज्ञान-उत्पन्न थाय छे 'ईहा' माहि पहाना अर्थ थे। सूत्रना उत्तराभा मेत्रीशमा सूत्रमा गुभो (सू ५७)