SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 648
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ औपपातिकसने me जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे, से विय थिमिओदए णो चेवणं करमोदए, से वि य वहुप्पसण्णे, णो चेव णं अवहुप्पसपणे, से वि य परिपूए णो सेइया होइ।। चउसेइओ उ कुलओ चउकुलभो पत्थो होइ ॥१॥ चउपत्थमात्य तह चत्तारि य आढया भवे दोणो।' आया-द्वे असती प्रसृति , शभ्या प्रमृतिभ्या सेतिका भवति । चतुप्सेतिकस्तु कुलवश्चतुष्कुलव प्रस्थो भवति ॥ १॥ चतुष्प्रस्थमादक तथा चत्वारि आढकानि भवेद् द्रोण ॥ इति । मागधप्रस्थपरिमित जल सत्यासिना परिग्रहीतु कल्पते इत्यर्थ । ' से नि य वहमाणे णो चेव ण हमाणे' तदपि च जल वहमाननयादिस्रोतोवर्ति व्याप्रियमाण वा परिग्रहीतु कल्पत, नो चाहमानम्। ‘से वि य थिमिओदए णो चेव ण कदमोदए ' तदपि च स्तिमितोदक नो चैव सल कर्दमोदकम् , स्तिमितोदक-पकसम्पर्करहित कल्पते, यत्र तु कर्दमसम्पर्कोऽस्ति तजल न कल्पते--दत्यर्थे । से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव ण आहुप्पसण्णे' तदपि च जल बहुप्रसन्नम् अति असती की एक प्रसूति होती है। दो प्रसूति की एक सेतिका, चार सेतिकाओं का एक कुलव और चार कुलवों का एक प्रस्थ होता है। यह पहिले समय में काष्ठ का बनता था। चार प्रस्थों का एक आढक और चार आढका का एक द्रोण होता है। इनके लिये प्रस्थप्रमाण जल उपयोग म लेने का विधान किया गया है (से वि य वहमाणे णो वेव ण अवहमाणे) वह भी वहती हुई नदी आदि का होना चाहिए, बिना बहता हुआ जल लेना उहें निषिद्ध है । ( से वि थिमिओदए णो चेव ण कद्दमोदए ) वह भी यदि स्वच्छ हो तब ही ग्रहण करने योग्य कहा गया है, कर्दम से मिश्रित नहीं। (से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव ण अबहुप्पसण्णे) स्वच्छ होने पर भी निर्मल हो तब ही ग्राह्य हो सकता કહ્યું પણ છે-બે અસતીની એક-પ્રસુતિ થાય છે બે પ્રસૂતિની એક સેતિકા, ચાર સૈતિકાઓને એક કુલવ અને ચાર કુલવને એક પ્રસ્થ થાય છે આ અગાઉના સમયમ લાકડાને બનતે તેં ચાર પ્રસ્થાને એક આતંક અને ચાર આઢને એક દ્રોણ થાય છે પ્રસ્વપ્રમાણ જલના ઉપગનું વિધાન २ उखु (से वि य बहमाणे णो चेव ण अपहमाणे) ते १४॥ ५९ पडता नही દિન હોવું જોઈએ, વિના વહેતું જલ લેવું તેમને નિષિદ્ધ છે (હૈ વિ ચ तिमिओदए णो चेच ण कदमोप) ते पन्ने २५२० सय त अड ४२५॥ सोय उसु, १६ मया मिश्रित नहि (से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव ण
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy