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________________ ४६७ पोषयषिणो-टोका स ५६ भगवतो धर्मदेशना एव खलु चउहि ठाणेहि जीवा जेरइयत्ताए कम्म पकरेंति, भद्ररूपा , 'ठिठकहाणा' स्थितिकन्याणा =अनेकप योपमसागरोपमरूपचिरस्थितिका 'आगमेसिभना' आगमिप्यढा -आगमिप्यत्-आगामिकालमावि भद्र-कल्याण-निर्माणरूप येपा ते तया, 'जाव पडिरूवा' यावत्प्रतिरूपा =अतिरमणीयाऽऽकारा , यावच्छन्तात'प्रामानीया नर्गनाया अमिरूपा' इति को यम् । पुनरपि 'तमाइक्खइ' तटाचष्टेत प्रवचन कथयनि-'एव खलु चउर्हि ठाणेहिं जीवाणेरइयत्ताए सम्म परेंति' एव खल चतुर्भि म्यानेजर्जीवा नैरयिकताया कमागि प्रकुर्वति, तत्र नैरयिकताया =नारकित्वस्य, सागगेपम तक देवलोक म इनकी स्थिति होने के कारण ये देव स्थितिकल्याण कहे गये हैं। इनम से आकर ही तो मनुष्यपयाय लेकर जीव निवाण-मुक्ति का लाभ करते है, अत वे (आगमेसिभदा) आगमिप्यद्भद्र कहे गये है ।(जाव पडिरुवा) यहाँ पर 'यावत्' शब्द से "मासानीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः" इन पदों का भी नार हुआ है । 'प्रासा दीया: दरोगने से मन प्रसन्न हो जाता है। अत एप ये 'दर्शनीया दर्शनाय हैं। 'अभिरूपाः' टनके रूप की सुन्दरता प्रतिक्षण नवीन नवान भाव से बढती रहती हो मे ये मालूम होते हैं, इसलिये ये अभिरूप हैं। 'मतिरूपाः' इनके रूप की तुलना नहा हो सकता है, क्यों कि इनका रूप असाधारण होता है, अर्थात् ये अनुपम सुन्दर होते है । __ अन इस प्रवचन का क्या फल हे ? इसको कहते है (एर सलु चरहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्म परेंति) यह जीन __चार कारगो द्वारा नरक में ले जानेवाले कर्मों को करते है, अन इस बात को प्रभु प्रकट (ठिइकटाणा) गनेपश्या५म सागरा५म सुधा ४मा तमनी स्थिति હેવાના કારણે તે દેવે સ્થિતિકાણુ કહેવાય છે તેમાથી આવીને જ મનુ ध्यपर्याय प्रास न ७३ नि -मुस्तिनी सास ४२ छ, भाटे तमा (आगमेमिभद्दा) Pामियम ४ाय छे (जाय पडिरूमा) मडी यात् ०४थी. 'प्रामाटीया , दर्शनीया, अभिरूपा' से पहोना ५५ सय था छ "प्रासानीया"-मेमने नेता मन प्रसन्न थ य छ २॥ माटे ४ ते 'तर्गनीया' शनाय छ 'अभिरूपा' भनी ३५नी सुरता प्रतिक्ष नवीन નવીન ભાવથી વધતી જતી હોય તેમ તેઓ જણાય છે, તે માટે તેઓ અભિ३५ 'प्रतिरूपा' तेभनी ३१नी तुसना न २७ , भ3 तेभनु ३५ અસાધારણ હોય છે, અર્થાત્ તેઓ અનુપમ સુંદર હોય છે. હવે આ પ્રવ ચનનુ શુ ફલ છે ? તે કહે છે (एन सटु चहि ठाणेहिं जीवा गैरइयत्ताए फम्म पकरेंति) मा यार
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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