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________________ પ ओपपातिकत्र कहाणा ठिकाणा आगमेसिभद्दा जाव पडिरुवा । तमाइक्वाड समाना = प्रकर्षेण शोभमाना 'कप्पोरगा ' कच्पोपगा कप सामानिक त्रायलिंग पारिपया त्मरक्ष रुपाला नीक प्रकीर्णका भियोग्य किन्चिषिकन्याम्प आचारस्तमुप गता = प्राप्ता, सोधर्मादिदेवलोक नासिरैमानिकदेव प्रामा, 'गहकलाना ' गति कन्याणा - कल्याणा गतिर्येषा ते तथा, अथवा — गया चतुर्गतिकलोक देवगतिरूपया कल्याणा-लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पमासमाणा ) इस पाठ का मह हुआ है, इस का अर्थ इस प्रकार है-इनकी भुजाएँ फटक-कडे और त्रुटित-मुजन व इन आभूषणों से विभूषित रहा करती है। बाकी के इन समस्त पदों का अर्थ पीछे जहा पर दवा के आगमन का वर्णन किया गया है उस ३३ वें सून में लिखा जा चुका है। (कप्पोवगा ) इन्द्र, सामानिक, नायत्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीकाधिपति, प्रकार्गक, आभियोग्य, किन्चिपिक, ये दग प्रकार के देव जहाँ होते हैं उन देवलोकों का नाम कल्प है। इन कल्पों मे जो उत्पन्न होते हैं उनका नाम कल्पोपग है। सौधमादिक देवलोक से अच्युत देवलोक तक के देव कल्पोपग कहलाते है, क्यों कि यहीं तक इन्द्रादिक १० प्रकार के देवों का व्यवहार होता है, इनके बाद नहीं ! ( गइकल्लागा ) इनकी गति कल्याणकारी होती है, अथवा चतुर्गतिक इस लोक में ये देवगति में रहनेवाले होने के कारण उत्तम होते है, इस अपेक्षा गतिकल्याण कह गये है । ( ठिइकलाणा ) अनेक पन्यापम(१) असुरकुमारों के वर्णन मे इन समस्त पदों का अर्थ लिया गया है। यो छे खाना अर्थ ત્રુટિત~ભુજખ ધ એ १ છે दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासमाणा) या पाठना सग्रह આ પ્રકારે છે એમની ભુજાએ કટક (કડા) અને આભૂષણોથી શણગારેલી રહે છે. ખાદીના આ બધા પદોના અર્થ અગાઉ જ્યા દેવાના આગમનનુ વર્ષોંન કર્યું છે તે ૩૩મા સૂત્રમા લખાઈ ગયુ (कप्पोवना) द्र, साभानि४, श्रायस्त्रिश, पारिषद्य, आत्मरक्षक, बोडयास, अनीअधिपति, अभीक्षु४, मालियोग्य, द्विभिषिक, या हरा प्रहारना हेव न्या હાય છે તે ધ્રુવલાનુ નામ કલ્પ છે. આ ક`ામા જે ઉત્પન્ન થાય છે. તેમના નામ કત્પાપગ છે સૌધર્માદિક દેવલાકથી લઇને અયુત દેવલેક સુધીના દેવ કપાપગ કહેવાય છે કેમકે અહી સુધી ઇંદ્રાદિક ૧૦ પ્રકારના हेवाना व्यवहार थाय छे त्यार पटी नहि (गइकलाणा) तेभनी अति उदयाशु કારી હોય છે અથવા ચતુતિઃ આ લેાકમા તેઓ દેવતિમા રહેવાવાળા હોવાને કારણે ઉત્તમ હોય છે. આ અપેક્ષાથી તે ગતિકલ્યાણ કહેવાય છે (૧) સુરકુમારાના વર્ગુનમા આ બધા પાના અથ લખાઈ ગર્ચા છે
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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