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________________ पोयपपिणो-टोका सू ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् आणुगामियत्ताए भविस्सइ-त्ति कटु वहवे उग्गा उग्गपुत्ताभोगा भोगपुत्ता, एवं दुपडोयारेणं राइण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा हिताय जावनादिनिगाहाय, 'सुहाए' सुखाय भोगमपायानन्दाय, 'खमाए' क्षमाय=समुचितसुखसामथ्याय, ‘णिस्सेयसाए नि श्रेयसाय माग्योदयाय, 'आणुगामियत्ताए' आनुगामिकतायै अनुगमनशाल वेन भनपरम्पराऽनुगन्धिमुग्वाय भविष्यति । 'त्तिक?' इति कृत्वा इति-एव कृपा आल्यान भाषण प्रजापना प्ररूपणा च अन्योऽन्य कृत्वा 'वहवे' वहब , 'उग्गा उग्गपुत्ता' उग्रा उग्रपुत्रा , तन-उग्रा -आदिदेवाऽप्रस्थापिता रक्षकवराजा , उप्रपुत्रा -त एव कुमारावस्याम्प ना , 'भोगा भोगपुत्ता' भोगा –भोगपुत्रा -मोगा =आदिदेवावस्थापिता गुरुवराजा , भोगपुत्रा -त एव सुमारावस्थासम्पन्ना , ‘एवं दुपटोयारेण एव द्विपदोचारणेनते च तत्पुत्राश्चेति द्विवारोचारणेन 'राडण्णा' राज-या -भगवद्वयस्यवाजा ,राजन्यपुत्रा -राजआनन्द प्राप्ति के लिये (खमाए) समुचित सुख देने क लिये (णिस्सेयसाए) नि श्रेयस अर्थात् भाग्योदय के लिये, तथा (आणुगामियत्ताए) जन्म-जन्मान्तर मे सुख देने के लिये (भविस्सइ) होगा, (त्तिक) इस प्रकार विचार कर (वहवे) बहुत से (उग्गा) भगवान् आदिनाथ प्रभु द्वारा स्थापित रक्षकाश में उत्पन्न 'उग्र' कहलाते हैं, ऐसे उग्रवशाय लोग, और (उग्गपुत्ता) उन उग्रवगीय लोगों के पुत्र, तथा बहुत से (भोगा) भगवान आदिनाथ प्रभु द्वारा स्थापित गुरुवश में उत्पन्न 'भोग' कहलाते है, ऐसे भोगवशीय लोग और (भोगपुत्ता) उन भोगवशीय लोगों के पुत्र, (एव दुपडोयारेण) इसी तरह आगे के पदों का भी दुवारा उच्चारण करना चाहिये, जैसे-'राइण्णा राइण्णपुत्ता' इत्यादि । तथा--बहुत से (राइण्णा) राजय-अर्थात् भगवान आदिनाथ के मित्रों के वशज एव उनके पुत्र, (खत्तिया) भाटे, (सुहाए) सुभ भाटे अर्थात् लागानित मान प्राप्ति भाटे, (खमाए) समुथित सुभ हेवा भाटे (णिस्सेयसाए) निश्रेयस मर्थात् माग्योहयने भाटे, तथा (आणुगामियत्ताए) रभ-भातरमा सुम देवा माटे (भविस्सइ) थशे (त्ति कटु) मा प्ररे विया२ ४शने (वहवे) घgual (उग्गा) समपान આદિનાથ પ્રભુ દ્વારા સ્થાપિત રક્ષકવશમાં ઉત્પન્ન “ઉ” કહેવાય છે, એવા अशीय als, तथा (उमापुत्ता) a यशीय होना पुत्र, (भोगा) सવાન આદિનાથ પ્રભુ દ્વારા સ્થાપિત ગુરૂવશમાં ઉત્પન્ન “ગ” કહેવાય છે, सपा लागवशी, तथा (भोगपुत्ता) लागवशी बीना पुत्र, (एव दुपडो यारेण) मेरीत मारना पहाना ५y भीलवार व्या२३ ४२७ मध्ये, भ-"राइण्णा, राइण्णपुत्ता" त्याहि, तथा घाय। (राइण्णा) शान्य-मर्थात् समपान माहिनाथना भित्रना वश मे मना पुन, (खत्तिया) क्षत्रिय
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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